Book Title: Sramana 1992 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 13
________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास ११ १. मिथ्यात्वी, २. सम्यग्दृष्टि (सदृष्टि), ३. अणुव्रतधारी, ४. महाव्रती, ५. प्रथमकषायचतुष्कवियोजक, ६. क्षपकशील, ७. दर्शन.. मोहत्रिक (क्षीण), ८. कषायचतुष्क उपशमक, ९. क्षपक, १०. क्षीणमोह ११ सयोगीनाथ और १२. अयोगीनाथ ।। उपर्युक्त १२ अवस्थाओं में एक-दो नामों में कुछ अन्तर को छोड़कर दस वही हैं जिनका उल्लेख हमें आचारांग नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में मिलता है। इसमें दो नाम जो अधिक हैं-वे मिथ्यादृष्टि और अयोगी केवली हैं। इनमें भी मिथ्यादृष्टि तो तुलना की दृष्टि से दिया गया है अतः ११ अवस्थायें या गुणश्रणियाँ ही शेष रहती हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् का है। आगे हम देखेंगे कि षटखण्डागम के वेदना खण्ड की चूलिका में जो गाथायें दी गई हैं, उनमें आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के अनुरूप दस अवस्थाओं का ही चित्रण है किन्तु चलिका में उक्त गाथाओं को उद्धत करके जो व्याख्यासूत्र बनाये गये हैं उनमें जिन के सयोगी केवली और अयोगी केवली ऐसे दो विभाग करके ११ अवस्थाओं / गुणश्रेणियों का चित्रण हुआ है। धवलाटीका में तो स्पष्ट रूप से ११ की संख्या का उल्लेख भी है। कात्तिकेयानुप्रेक्षा में इन ११ अवस्थाओं के साथ मिथ्यात्व का भी स्पष्ट उल्लेख होने से कुल १२ अवस्थायें हो जाती हैं। यद्यपि यहाँ मिथ्यात्व शब्द का प्रयोग कर्म निर्जरा की सापेक्षिक अधिकता को बताने की दृष्टि से ही हुआ है, उसे गुणश्रेणी मानना ग्रन्थकार को इष्ट नहीं है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम में अवतरित चूलिका गाथाओं में जहाँ श्रावक और विरत नाम आये हैं वहाँ कात्तिकेयानुप्रेक्षा में क्रमशः उनके लिए अणुव्रतधारी और ज्ञानी महाव्रती ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है । 'अणंतकम्मंसे' एवं अनन्तवियोजक शब्द के स्थान पर इसमें प्रथमकषायचतुष्कवियोजक शब्द का प्रयोग हुआ है । यद्यपि इस शब्द वैभिन्न्य से अर्थ में कोई अन्तर नहीं आता है किन्तु स्पष्ट अर्थवाची शब्दों के प्रयोग की दृष्टि से इसे एक विकास तो माना जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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