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गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास
है। इस प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त के बीज रूप इन गुण श्रेणियों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में आचारांग नियुक्ति से लेकर नवीन कर्म ग्रन्थों तक अर्थात् ई० सन् की दूसरी शताब्दी से लेकर १३वीं शताब्दी तक निरन्तर रूप से मिलता है। इन गुण श्रेणियों का गुणस्थान सिद्धान्त से क्या सम्बन्ध है यह भी देवेन्द्रसूरि की टीका से स्पष्ट हो जाता है और इससे हमारी इस अवधारणा की पुष्टि होती है कि गुणस्थान सिद्धान्त का आधार कर्मनिर्जरा के आधार पर सूचित करने वाली ये गुणश्रेणियाँ ही हैं।"
१. गुणश्रेगयः एकादश भवन्तीति सम्बन्ध: । कुत्र कुत्र ? इत्याह---"सम्मदर
सम्वविरई उ” इत्यादि । तत्र “सम्म” ति सम्यक्त्वं-सम्यग्दर्शनं तल्लाभे एका गुणश्रेणिः । तथा विरतिशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् दरविरतिः- देशविरतिस्तल्लाभे द्वितीया गुणश्रेणिः । सर्वविरतिःसम्पूर्णविरतिस्तल्लाभे तृतीया गुणश्रेणिः । “अणविसंजोय” त्ति अनन्तानुबन्धिविसंयोजनायां चतुर्थी गुणश्रेणिः । "दंसखवगे' त्ति पदैकदेशे पदप्रयोगदर्शनाद् दर्शनस्य-दर्शन मोहनीयस्य क्षपको दर्शनक्षपकस्तत्र तद्विषया पञ्चमी गुणश्रेणिः । चशब्द: समुच्चये । 'मोहसम” त्ति मोहस्य-मोहनीयस्य शमः- शमक उपशमकः स चोपशमश्रेण्यारूढोऽ निवृत्तिबादरः सूक्ष्मसम्परायश्चाभिधीयते, तत्र मोहशमे षष्ठी गुणश्रेणिः । "संत" त्ति शान्तः- उपशान्तमोहगुणस्थानकवर्ती तत्र सप्तमी गुणश्रेणिः । "खवगि” त्ति क्षपक:-क्षपकश्रेण्यारूढोऽनिवृत्तिबादर: सूक्ष्मसम्परायश्च निगद्यते, तत्र क्षाकेऽष्टमी गुणश्रेणिः । “खीण" ति क्षीण:-क्षीणमोह [स्त]स्य नवमी गुणश्रेणिः । “सजोगि” त्ति सयोगिकेवलिनो दशमी गुणश्रेणिः । “इयर” त्ति अयोगिकेवलिन एकादशी गुणश्रेणि रिति गाथाक्षरार्थः । -शतकनामा पञ्चम कर्मग्रन्थ, पृ० ९४, श्री जैन आत्मा नन्द सभा भावनगर, सन् १९४० ।
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