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श्रमण, अप्रैल-जून १९०२
बताया है । अतः कार्तिकेयानुप्रेक्षा को अधिक परवर्ती नहीं माना जा सकता । मेरी दृष्टि में यह कुन्दकुन्द के पूर्व की है क्योंकि कुन्दकुन्द के द्वादशानुप्रेक्षा की अपेक्षा भाषा, प्रस्तुतिकरण की शैली, विषयवस्तु की सरलता आदि की दृष्टि से यह प्राचीन ही सिद्ध होती है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि कुन्दकुन्द के नाम से प्रचलित द्वादशानुप्रेक्षा स्वयं उनकी ही रचना है ? यह विवादास्पद प्रश्न है। यद्यपि निश्चयनय की प्रधानता की दृष्टि से उसे कुन्दकुन्द की रचना माना जा सकता है । ग्रन्थ के अन्त में मुनिनाथ कुन्दकुन्द ने ऐसा कहा, इस प्रशस्ति गाथा की उपस्थिति इसके कुन्दकुन्द का ग्रन्थ होने में बाधक बनती है क्योंकि कुन्दकुन्द स्वयं अपने को मुनिनाथ नहीं कह सकते। इस स्थिति में या तो हमें इस प्रशस्ति गाथा को प्रक्षिप्त मानना होगा या फिर यह मानना होगा कि कुन्दकुन्द के विचारों को आत्मसात करते हुए उनके किसी निकट शिष्य ने इसकी रचना की है।
पुनः कुन्दकुन्द के कुछ टीकाकारों ने उन्हें कुमारनन्दी का शिष्य बताया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के रचनाकार स्वामी कुमार यदि कुमार नन्दी हैं, तो ऐसी स्थिति में वे कुन्दकुन्द के पूर्व हुए हैं। पुनः इस आधार पर भी हम कार्तिकेयानुप्रेक्षा को प्राचीन कह सकते हैं कि जहाँ कुन्दकुन्द गूणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित हैं वहाँ कातिकेयानुप्रेक्षा के कर्ता स्वामीकुमार उससे परिचित नहीं हैं। ये मात्र ११ गुणश्रेणियों से परिचित हैं ।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक स्वामीकुमार कब हुए इस सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों ने पर्याप्त परिश्रम किया है। जहाँ ए० एन० उपाध्ये उन्हें जोइन्दू के बाद अर्थात् लगभग सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में रखते हैं। वहाँ पं० जुगुल किशोर जी मुख्तार इन्हें उमास्वाति के बाद स्थापित करते हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में जो भावनाओं का क्रम दिया गया है वह उमास्वाति के तत्त्वार्थ के अनुरूप है जब कि १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पूर्वोक्त, प्रकाशक परमश्रुत प्रभावकमण्डल, अगास,
भूमिका पृ० ६९-७२ २. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश-पं० जुगलकिशोर जी
मुख्तार, वीरशासन संघ, कलकत्ता, प्र० सं० सन् १९५६ पृ० ४९४-५००
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