Book Title: Sramana 1992 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 19
________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास केयानुप्रेक्षा सातवीं शताब्दी की रचना है तो भी इतना तो माना ही जा सकता है कि उसमें कर्म निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की ११ अवस्थाओं की जो चर्चा है वह प्राचीन है और गुणस्थान के विकास की अवधारणा का आधार रही है क्योंकि यह चर्चा दिगम्बर परम्परा में भी लगभग गोम्मटसार तक चलती रही है। III षट्खण्डागम एवं दिगम्बर कर्म-साहित्य के परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त अपने पूर्ण विकसित स्वरूप में प्राप्त होता है । इसका सत्प्ररूपणा खंड १४ गुणस्थानों की विस्तृत विवेचना करता है। इतनी विशेषता अवश्य है कि इसमें 'गुणस्थान' शब्द के स्थान पर जीव समास' शब्द ही प्रयुक्त हुआ है । अतः हम कह सकते हैं कि षट्खण्डागम उस काल की रचना है जब गुणस्थान सिद्धान्त विकसित तो हो चुका था किन्तु उसे गुणस्थान नाम प्राप्त नहीं हुआ था। श्वेताम्बर परम्परा में भी, समवायांग में १४ गुणस्थानों के नाम तो उपलब्ध होते हैं किन्तु उन्हें 'जीवट्ठाण' कहा गया है। आवश्यक नियुक्ति में जो दो प्रक्षिप्त गाथायें गुणस्थानों का विवरण देती हैं वे १४ भूतग्रामों का उल्लेख होने के बाद दी गई हैं। उसमें इन १४ अवस्थाओं को कोई नाम नहीं दिया गया है। इन दो गाथाओं को गाथाओं की क्रमसंख्या में परिगणित भी नहीं किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागम और समवायांग तथा नियुक्ति का वह प्रक्षिप्त अंश एक ही काल की रचना है। समवायांग में यह अंश अंतिम वाचना के समय ही जोड़ा गया है, ऐसा पं० दलसुखभाई आदि विद्वानों की अवधारणा है और उस वाचना का काल ईस्वी सन् की पांचवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है । श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान शब्द सबसे पहले आवश्यकचूणि में और दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में उपलब्ध होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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