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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२
चर्चा करना नहीं चाहते हैं किन्तु इतना तो माना ही जा सकता है कि ऐकान्तिक मान्यताओं के खण्डन और सर्वज्ञता की तार्किक सिद्धि की अवधारणायें पांचवीं शती में अस्तित्व में आ चुकी थीं ।
इसी प्रकार कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में त्रिविध आत्माओं की चर्चा उपलब्ध है | कार्तिकेयानुप्रक्षा के अतिरिक्त यह चर्चा कुन्दकुन्द के 'मोक्ष - प्राभृत', पूज्यपाद के समाधितन्त्र' और योगीन्दु के 'योगसार' एवं 'परमार्थप्रकाश' में भी पायी जाती है । किन्तु हम देखते हैं कि जहाँ कुन्दकुन्द और पूज्यपाद के ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख है वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उसका स्पष्ट अभाव है इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि तीन प्रकार की आत्माओं की चर्चा सर्व प्रथम कार्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक स्वामीकुमार ने ही की । सामान्यतया दिगम्बर परम्परा के विद्वान् पूज्यपाद की अपेक्षा कुन्दकुन्द को पूर्ववर्ती मानते हैं । पुनः कुन्दकुन्द के कुछ टीकाकारों ने कुन्दकुन्द के गुरु के रूप में कुमारनन्दि का उल्लेख किया है और यदि ये कुमारनन्दि ही कार्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक स्वामीकुमार हैं तो इस दृष्टि से भी उनका समन्तभद्र और कुन्दकुन्द के पूर्व होना सिद्ध हो जाता है । एक अन्तिम बाधा कार्तिकेयानुप्रेक्षा की प्राचीनता के सन्दर्भ में यह है कि उसमें कुछ गाथाएं अपभ्रंश के प्रभाव से युक्त हैं और योगीन्दु के ग्रन्थों में पायी जाती हैं । इस सम्बन्ध में पं० जुगल किशोर जी मुख्तार आदि की कल्पना यह है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में ये गाथाएं प्रक्षिप्त हैं । पुनः अपभ्रंश का प्रभाव तो प्रतिलिपि करने के दौरान युग की भाषागत विशेषता के कारण आ सकता है । हम देखते हैं कि इस प्रकार के प्रभाव प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर मान्य आगमों में भी आ गये हैं । हम कार्तिकेयानुप्रेक्षा को किस काल की रचना मानते हैं यह प्रस्तुत आलेख का विवेच्य विषय नहीं है । हमारा प्रतिपाद्य मात्र इतना है कि गुणस्थान सिद्धान्त के सन्दर्भ में कार्तिकेयानुप्रेक्षा की जो स्थिति है वह आचारांग नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के बाद की और षट्खंडागम तथा पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थ सिद्धि की टीका के पूर्व की है अर्थात् यह लगभग ५वीं शती के पूर्व की रचना है हम यह भी मान लें कि कार्ति
१. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृ. ४९७-४९९
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