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जैन दर्शन में शब्दार्थ- सम्बन्ध
मनुष्य अपने विचारों और अनुभूतियों को प्रमुख रूप से शब्दप्रतीकों (सार्थक ध्वनि संकेतों के सुव्यवस्थित रूप ) के माध्यम से अभिव्यक्त करता है । भारतीय दर्शन में शब्दार्थ सम्बन्ध पर गम्भीरता से विचार किया गया है । जैन दार्शनिकों ने भी इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थों में विस्तृत विचार किया है । शब्दार्थ के सम्बन्ध में जैनेतर भारतीय दार्शनिकों की निम्न मान्यतायें हैं
डा० सुदर्शन लाल जैन
(क) बौद्ध - शब्द और अर्थ का कोई सम्बन्ध नहीं है । शब्द का अर्थ विधिरूप न होकर अन्यापोह ( इतर व्यावृत्ति) रूप है । इनका कहना है कि शब्द और अर्थ में जो वाच्य वाचक सम्बन्ध माना जाता है वह वस्तुतः कार्यकारणभाव सम्बन्ध से भिन्न नहीं है क्योंकि बुद्धि में अर्थ का जो प्रतिबिम्ब होता है वह शब्दजन्य है; इससे उसे वाच्य कहते हैं तथा शब्द को उसका जनक होने से वाचक कहते हैं ।
(ख) मीमांसक - ये शब्द और अर्थ का नित्य सम्बन्ध मानते हैं । शब्द को भी नित्य मानते हैं । शब्द का अर्थ सामान्यमात्र होता है, विशेष नहीं, जैसे 'गौ' शब्द 'गो' व्यक्ति का बोधक न होकर 'गोत्व' सामान्य का बोधक है । 'सामान्य व्यक्ति के बिना नहीं रह सकता है' ऐसा नियम होने से सामान्यबोध के पश्चात् लक्षितलक्षणा के द्वारा व्यक्ति विशेष की प्रतीति होती है। भाट्ट मीमांसक शब्द को द्रव्य मानते हैं और प्रभाकर मीमांसक आकाश का गुण स्वीकार करते हैं ।
(ग) वैयाकरण - ये 'स्फोट' नामक एक नित्य तत्त्व मानते हैं इनके अनुसार वर्ण ध्वनियाँ (वर्ण, पद और वाक्य) क्षणिक हैं, अतः उनसे अर्थबोध नहीं हो सकता है । इन वर्ण-पदादिरूप क्षणिक
अध्यक्ष व रीडर, संस्कृत विभाग, बी. एच. यू., वाराणसी
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