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गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास
गाथायें उसी से ली गई होंगी। फिर भी पं० परमानन्द जी शास्त्री ने भी उस तुलना में षट्खण्डागम की इन गाथाओं के व्याख्या सूत्र ही दिये थे। मूल गाथायें नहीं दी थी। ये गाथाएँ निम्नवत् हैं
"सम्मत्तुप्पत्ती वि य साक्य-विरदे अणंतकम्मसे दसणमोहक्खवए कसाय उवसामए य उवसंते । खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा
तविवरीदो कालो संखेज्जगणा य सेडीओ' ॥" आचारांग नियुक्ति में ये गाथायें निम्न रूप में हैं -
सम्मत्तपत्ती सावए विरए अणंतकम्मसे । दसंण मोहक्खवए उवसामन्ते य उवसंते ।। खवए य खीणमोहे जिणे अ सेढ़ी भवे असंखिज्जा ।
तविवरीओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए ॥ उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों की गाथाओं में कर्म निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं का चित्रण है वे हमें तत्त्वार्थसूत्र में भी उसी रूप में मिलती हैं।
सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशातमोहक्षकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंङ्ख्येयगुणनिर्जराः ॥
तत्त्वार्थसूत्र ९।४७ (विवे० पं० सुखलालजी) आचारांग नियुक्ति एवं षट्खण्डागम तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित दस चूलिका गाथा में वर्णित दस अवस्थाएँ ___ अवस्थाएँ (१) सम्यक्त्व उत्पत्ति
(१) सम्यग्दृष्टि (२) श्रावक
(२) श्रावक (३) विरत
(३) विरत (४) अनन्तवियोजक (अणंतकम्मसे) (४) अनन्तवियोजक १. षट् खण्डागम, सं० पं० सुमति भाईशाह, श्री श्रुत भंडार व ग्रन्थ प्रकाशन
समिति फाल्टश सन् १९३५, वेदनाखण्ड, वेदनाभाव विधान प्रथम
चूलिका गाथा-७-८, पृ० ६२७ । २. आवारांग नियुक्ति २२-२३
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