Book Title: Sramana 1992 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 26
________________ श्रमण, अप्रैल-जून १९९२ क्षीणमोह के स्थान पर क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ शब्द का प्रयोग हुआ है, जिससे अर्थ में एक स्पष्टता आ जाती है । दसवें कम पर मूल गाथा में तथा तत्त्वार्थसूत्र में जिन शब्द प्रयुक्त है, जबकि षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्रों में यथाप्रवृत्त केवली संयत शब्द दिया गया है । ज्ञातव्य है कि आगे चलकर गुणस्थान सिद्धान्त में यथाप्रवृत्त के स्थान पर सयोगी केवली शब्द का प्रयोग होने लगा था। साथ ही जहाँ मूलगाथा में मात्र १० अवस्थाओं का चित्रण है, षटखंडागम के व्याख्यासूत्रों में योगनिरोधकेवलीसंयत नामक ग्यारहवाँ क्रम भी दिया गया है । यही आगे गुणस्थान सिद्धान्त में अयोगीकेवली बन गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलगाथा की अपेक्षा व्याख्या सूत्रों में विकास और अर्थ की स्पष्टता है। गुणस्थान सिद्धान्त के निर्माण की दृष्टि से यदि हम देखें तो षट्खांडागम के व्याख्यासूत्रों के इन ११ स्थानों में मिथ्यात्व, सास्वादन, और मिश्र ये तीन स्थान और जुड़कर १४ गुणस्थानों का निर्माण हुआ है। विशेष रूप से ध्यान देने की बात यह है कि इन अवस्थाओं में भी अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक और कषायउपशामक के स्थान पर गुणस्थान सिद्धान्त में अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन नये नाम आये हैं और उपशान्त कषाय और क्षपक इन दो के स्थान पर सूक्ष्मसंपराय और उपशान्त मोह ये दो अवस्थाएं बनी हैं। इस प्रकार से षट्खंडागम में उद्धृत मूल गाथाओं में वर्णित १० और व्याख्यासूत्रों में वर्णित ११ अवस्थाएं ही आगे चलकर १४ गुणस्थानों का रूप लेती हैं । गुणस्थान सिद्धान्त की उपर्युक्त १० अथवा ११ अवस्थाओं की एक सबसे महत्त्वपूर्ण भिन्नता यह है कि इन अवस्थाओं में पतन की कोई कल्पना नहीं है। गुणस्थान सिद्धान्त में सास्वादन और मिश्र गुणस्थान पतन की चर्चा के परिणाम स्वरूप ही अस्तित्व में आये हैं। इसीप्रकार गुणस्थान सिद्धान्त और कर्म निर्जरा के आधार पर विकसित इन दस अवस्थाओं में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि इन दस अवस्थाओं के चित्रण में दर्शनमोह और चारित्रमोह के सन्दर्भ में पहले उपशम और बाद में क्षय की अवधारणा स्वीकृत रही है। उपशम श्रेणी और क्षायिक श्रेणी से अलग-अलग आरोहण की बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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