Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 19
________________ ३. धर्मकथा-संसार से विरक्ति निर्माण कर सम्यक्त्व-प्राप्ति के लिए लिखी गई धार्मिक कथाएँ। ४. संकीर्णकथा-धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ सिद्ध करने के लिए लिखी गई संमिश्र कथाएँ। संसार-जंजाल से विरक्ति निर्माण कर सम्यक्त्व की प्रेरणा जागृत करने वाली यह 'कुम्मापुत्तचरिअं' कथा धर्मकथा है। उद्योतनसूरि ने अपने 'कुवलयमाला' नामक प्रदीर्घ चम्पू काव्य में कथा के पाँच प्रकार बताए हैं-१. सकलकथा, २. खंडकथा, ३. उल्लापकथा, ४. परिहासकथा और ५. संकीर्णकथा तथा उन्होंने हरिभद्रसूरि द्वारा बताए गए भेदों में धर्मकथा के निम्नांकित चार भेद भी किए हैं १. आक्षेपिणी-मनोनुकूल आकर्षक कथाएँ। २. विक्षेपिणी-मनप्रतिकूल उद्वेगजनक कथाएँ। ३. संवेदजननी-ज्ञानोत्पत्ति करने वाली कथाएँ। ४. निर्वेदजननी-वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथाएँ। प्रस्तुत कुम्मापुत्तचरिअं कथा निर्वेदजननी है। अतः कहा जा सकता है कि 'कुम्मापुत्तचरिअं' यह प्राकृत की पद्यात्मक कथा आख्यायिका प्रकार की उत्कृष्ट निर्वेदजननी धर्मकथा है। _ 'कुम्मापुत्तचरिअं' धर्मकथा प्रस्तुत प्राकृत ग्रन्थ 'सिरिकुम्मापुत्तचरिअं' आख्यानक विभाग में निर्वेदजननी दिव्यमनुष्य जैन धार्मिक कथाकाव्य है। इसमें कूर्मापुत्रचरित्र के आधार से भावशुद्धि का महत्त्व समझाया है। मुक्ति के लिए मुनिदीक्षा की नहीं, लेकिन चित्तशुद्धि की जरूरत है। जिस व्यक्ति का मन शुद्ध है, भावना शुद्ध है; वह गृहस्थ हो या मुनि, वह केवलि हो सकता है। इस दृष्टि से दान, शील, तप और भावना इस चतुर्विध धर्म में भावना सर्वश्रेष्ठ है। शुद्ध भावना संसारसागर पार कराने वाली नौका है, मुक्तिपुरी को पहुँचाने वाला मार्ग है और मनोवांछित वस्तु प्रदान करने वाला चिंतामणि है। इस शुद्ध भावना से ही गृहस्थावस्था में रहते हुए भी कूर्मापुत्र को केवलज्ञान कैसे प्राप्त हुआ, इसका सरस वर्णन इस काव्य में किया है। यहाँ रत्नपारखी व्यापारी का दृष्टान्त दिया है। इसमें दुर्लभ मानवजन्म प्राप्त करके प्रमत्तता से चिंतामणि खो देने वाले व्यापारी के समान मानव भी प्रमत्तता से मनुष्यजन्म व्यर्थ खो देता है, यह सिद्धान्त सिखाया है। इसलिए 'प्रमत्तता का त्याग कर धार्मिक वृत्ति में अप्रमत्त रहो, व्रताचरण करो और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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