Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 32
________________ भयवं कया वि होही अम्हाण कुमारसंगमो कह वि । तेणुत्तं होही पुण जयेह वयमागमिस्सामो ।। 45 ।। अर्थ : हे भगवन्! कभी भी, कैसे भी हमारा कुमार से मिलन होगा ? (तब ) उन केवली ने कहा- 'होगा' जब यहाँ हम सब पुनः आएँगे । इअ संबंध सुणिउं संविग्गा कुमरमायपियरो य 1 लहुपुत्तं ठविअ रज्जे तयंतिए चरणमावन्ना ।। 46 ।। अर्थ : इस प्रकार के सम्बन्ध को सुनकर कुमार के माता-पिता मुक्ति की इच्छा करने लगे । और छोटे पुत्र को राज्य पर बैठाकर उसी समय (उन केवली के) पास चरणों के आश्रित हो गए । | दुक्करतवचरणपरा परायणा दोसवज्जियाहारे । निस्संगरंगचित्ता तिगुत्तिगुत्ता य विहरन्ति ।। 47 ।। अर्थ : अत्यंत दुष्कर तप को ध्याने ( तपने) में तल्लीन, दोष रहित भोजन को (लेते हुए), राग से रहित चित्त वाले और मन, वचन, काय रूप तीन गुप्तियों से रक्षित / युक्त (वे दीक्षित माता - पितारूप मुनि) विचरण करते हैं । अन्नदिणे गामाणुग्गामं विहरंतओ अ सो नाणी । तत्थेव दुग्गलवणे समोसढो तेहि संजुत्तो ।। 48 ।। अर्थ : अन्य किसी दिन गाँव-गाँव में विचरण करता हुआ वह ज्ञानी (साधु) उसी दुर्गिल नाम के उद्यान में उनके (माता - पितारूप मुनि) सहित आया । अह जक्खिणी अवहिणा कुमरस्साउं विआणिउं थोवं । तं केवलिणं पुच्छइ कयंजली मत्तिसंजुत्ता ।। 49 ।। अर्थ : इसके बाद वह यक्षिणी ( अपने ) अवधिज्ञान से कुमार की आयु को अल्प जानकर भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर उस केवली (साधु) को पूछती है सिरिकुम्मापुत्तचरिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only 11 www.jainelibrary.org

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