Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 37
________________ नियमायतायदंसणसमुल्लसंतप्पमोअभरभरिअं। केवलनाणिसगासे अमरी विणिवेसए कुमरं ।। 71 || अर्थ : अपने माता-पिता के दर्शन से उत्पन्न मोह के संताप से भरे हुए उस कुमार को यक्षिणी ने केवलज्ञानी के पास बैठाया। अह केवली वि सव्वेसिं तेसिमुवगारकारणं कुणइ। धम्मद्देसणसमए' अमयरससारणीसरिसं ।। 72 || अर्थ : इसके बाद केवलज्ञानी मुनि ने उसके सभी प्रकार के उपकार के कारणों को (कल्याण के कार्यों को) करके अमृतरस के प्रवाह के समान आत्म-धर्म का उपदेश (दिया)। जो भविओ मणुअभवं लहिउं धम्मप्पमायमायरइ। सो लद्धं चिंतामणिरयणं रयणायरे गमइ।। 73|| अर्थ : जो भव्य जीव मनुष्य भव को प्राप्त करके धर्म के आचरण में प्रमाद करता है वह प्राप्त किए गए चिंतामणि रत्न को समुद्र में खो देता। तथाहिएगम्मि नयरपवरे अस्थि कलाकुसलवाणिओ को वि। रयणपरिक्खागथं गुरुण पासम्मि अब्मसइ ।। 741 उसी प्रकार - अर्थ : एक श्रेष्ठ नगर में कलाओं में कुशल कोई वणिक (व्यापारी) रहता था। (वह) गुरु के पास में रत्नों की परीक्षा (जाँचने) वाले ग्रन्थ का अभ्यास करता था। सोगंधियकक्केयणमरगयगोमेयइंदनीलाणं। जलकंतसूरकंतयमसारगल्लंकफलिहाणं ।। 75।। इच्चाइयरयणाणं लक्खणगुणवण्णनामगोत्ताई। सव्वाणि सो विआणइ विअक्खणो मणिपरिक्खाए।। 76 ।। 1. धम्मस्स देसणं समये 16 23066086033 20828583368 । सिरिकुम्मापुत्तचरि :292-2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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