Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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नियमायतायदंसणं- अपने माता-पिता के दर्शन से, समुल्लं= उत्पन्न, मोअं= मोह के, संतप्पं= संताप से, भरभरिअं= भरे हुए, कुमरं= उस कुमार को, अमरी= यक्षिणी ने, केवलनाणिसगासे= केवलज्ञानी के पास में, विणिवेसए = बैठाया।
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अह- इसके बाद, केवली= केवलज्ञानी मुनि ने, तेसिं= उसके, सव्वेसिं= सभी प्रकार के, उवगारकारणं= उपकार के कारणों को (कल्याण कार्यों को), कुणइ= करके, अमयरसं= अमृत रस के, सारणीसरिसं= प्रवाह के समान, धम्मदेसणसमए =आत्म-धर्म का उपदेश (दिया) -
(73) जो= जो, भविओ= भव्य जीव, मणुअभवं= मनुष्यभव को, लहिउं= प्राप्त करके, धम्मप्पमायमायरइ= धर्म के आचरण में प्रमाद करता हुआ, सो वह, लद्धं= प्राप्त किए गए, चिंतामणिरयणं= चिंतामणि रत्न को, रयणायरे= समुद्र में, गमइ= खो देता है।
(74) तथाहि= उसी प्रकार, कोवि= किसी भी, एगम्मि= एक, नयरपवरे= श्रेष्ठ नगर में, कलाकुसलवाणिओ= कलाओं में कुशल वणिक (व्यापारी), अस्थिथा, (वह) गुरूण= गुरु के, पासम्मि= पास में, रयणपरिक्खागंथं= रत्नों की परीक्षा (जाँचने) वाले ग्रंथ का, अब्भसइ% अभ्यास करता था।
(75-76) सोगंधियं= सौगंधिक, कक्केयणं= कर्केतन, मरगयगोमेयं= मरकत, गोमेद, इंदनीलाणं= इंद्रनील, जलकंत= जलकान्त, सूरकंतयं सूर्यकान्त, मसारगल्लं-मसारगल्ल, अंक= अंक, फलिहाणं= स्फटिक, इच्चाइय= इत्यादि, रयणाणं- रत्नों के, लक्खणगुणवण्णं= लक्षण, गुण, रंग (रूप), नामगोत्ताइं= नाम व गोत्र आदि, मणिपरिक्खाए = मणियों की परीक्षा करने में, वियक्खणो= विलक्षण/तीक्ष्ण बुद्धिवाला, सो= वह (व्यापारी), सव्वाणि= सभी प्रकार के (मणियों को), विआणइ= जानता है।
(77) अह-इसके बाद, अन्नया= एक बार, सो= वह, वणिओ= व्यापारी, विचिंतइ= विचार करता है, अवरेहि= अन्य, रयणेहिं= रत्नों से, किं= क्या (प्रयोजन),
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सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
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