Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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(131) हरी = विष्णु, हरो = शंकर, बंभाइसुरा = ब्रह्मा आदि देवता, सव्वे वि = सभी, विसएहि = विषय - सुखों के द्वारा, वसीकया = वश में किए गए हैं ( किंतु ) जेण = जिसने, विसया वि= विषय सुखों को भी, वसीकया = वश में कर लिया है (ऐसा ), कुम्मापुत्तो = कूर्मापुत्र, धन्नो = धन्य है ।
(132)
जं= जो, पुव्वजम्मे = पूर्वजन्म में सुचिरं = बहुत समय तक सुचारितं = उत्तम चारित्र धर्म का, परिपालिअं = पालन करता है, तं = वह, तस्स = उसके (स्वयं के), तारुण्णे = युवावस्था को प्राप्त होने पर वि= भी, विसयावरत्तत्तणं = विषय - सुखों से विरक्तपने को जायं = प्राप्त होता है। (133)
अण्णदिणम्मि= किसी अन्य दिन, मुणीसरं = मुनीश्वर द्वारा, सुयं = शास्त्र के (प्रवचन को ) गुणिज्जमाणं = गुनते हुए (चिंतन करते हुए) सुणन्तस्स = सुनते हुए, तस्स = उस, कुमरस्स= कुमार को, विमलं = निर्मल, जाइसरणं = जाति - स्मरण, समुप्पण्णं = उत्पन्न हो गया ।
(134)
जाईसरणगुणेणं = जाति - स्मरण के गुण से, संसारासारयं = संसार की असारता को, मुणंतस्स - जानता हुआ, खवगस्सेणिगयस्स = क्षपक श्रेणी के ( मोक्षाभिमुखता की आठवीं अवस्था) सुक्कज्झाणं = शुक्लध्यान को, पवन्नस्स = प्राप्त करके ।
(135)
झाणानलेण = ध्यानरूपी अग्नि से, कम्मिंधणनिवहं- कर्मोंरूपी ईंधन के समूह को, दुस्सहं- बड़ी कठिनाई से, दहंतस्स = जलाते हुए, तस्स = उस कूर्मापुत्र को, अनंतं= अनन्त ( एवं ) समुज्जलं = अत्यंत उज्ज्वल, केवलणाणं= केवलज्ञान, संजायं = उत्पन्न (हो गया)
(136)
ताव= तब, जइ= यदि, अहं = मैं चरितं = चारित्रधर्म ( मुनिधर्म) को, गहेमि= ग्रहण करता हूँ, ता = तो, सुअसोगविओगं = पुत्र के वियोग के शोक में, दुहिआणं = दुखित, मज्झ = मेरे, मायतायाणं = माता-पिता की, णूण = निश्चय ही, मरणं = मृत्यु, हविज्ज = हो जाऐगी ।
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सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
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