Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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करती थी। दोनों मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। वहाँ दोनों अपना आयुष्य भोगकर च्युत हुए ।
इलावर्द्धननगर में इला देवता का मंदिर था। उस देवता की पूजा एक सार्थवाही पुत्र - प्राप्ति की कामना से करती थी । देवलोक से च्युत होकर वह ब्राह्मण साधु का जीव उसी के यहाँ पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम इलापुत्र रखा गया। उस ब्राह्मणी का जीव गर्व दोष के कारण एक नटनी की कोख से पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ। दोनों ने यौवन में पदार्पण किया। एक दिन इलापुत्र ने उस नट - पुत्री को देखा । पूर्व जन्म के अनुराग से वह उसमें आसक्त हो गया । इलापुत्र ने उसकी माँग की और कहा मैं इसको प्राप्त करने के लिए इसके वजन जितना स्वर्ण देने को तैयार हूँ । परन्तु नट - पिता ने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि यह लड़की हमारी अक्षय निधि है। यदि तुम हमारी नटविद्या सीख लो और हमारे साथ घूमते रहो तो यह तुम्हें प्राप्त हो सकती है। इलापुत्र इसके साथ घूमने लगा। उसने नटविद्याएँ सीख लीं।
एक बार राजा ने विवाह के निमित्त नट-मण्डली को अपने करतब दिखाने के लिए कहा। वे वेन्यातट पर गए। राजा ने अपने अंतःपुर के साथ नटों के करतब देखे । इलापुत्र करतब दिखा रहा था। राजा की दृष्टि उसी नट कन्या पर टिकी हुई थी । उसने पूरा करतब देखा ही नहीं । खेल का एक भाग सम्पन्न हुआ। राजा ने नटों को कुछ भी दान नहीं दिया। उसके न देने पर दूसरों ने भी अपने हाथ खींच लिए । सारी जनता नटों के करतब देखकर साधुवाद, साधुवाद की आवाज करने लगी। राजा ने नट से कहा - 'ऊपर चढ़ो और पुनः करतब दिखाओ।' वहाँ वंश के अग्रभाग पर तिरछा काष्ट रखा गया। उसमें दो कीलिकाएँ थीं । नट पादुकाएँ पहनकर हाथ में असिखेटक लेकर ऊपर चढ़ा । उन कीलिकाओं का पादुका की नलिकाओं से प्रवेश हो सकता था। वे पादुकाएं सात आगे तथा पाँच पीछे आवद्ध थीं । राजा ने सोचा- यदि यह वहाँ से स्खलित होकर नीचे गिर पड़ेगा तो शरीर के सैकड़ों खंड हो जाएंगे। इलापुत्र ने वह करतब भी सफलता पूर्वक कर डाला। राजा अब भी उसी नट पुत्री की ओर देख रहा था। लोगों ने जय-जयकार किया फिर भी राजा की आँखें नहीं खुली। राजा ने नट मंडली को कुछ नहीं दिया और न ही ध्यान से नाटक देखा ।
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सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
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