Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 108
________________ परिशिष्ट “द" जीव द्वारा क्षय की जाने वाली प्रकृतियों का विवरण भद्रबाहुकृत आवश्यक नियुक्ति के अनुसार 111. अण-मिच्छ-मीस, सम्मं, अट्ठ नपुंसित्थिवेदछक्कं च । पुंवेयं च खवेती, कोहाईए य संजलणे ।। 111/1. गति आणुपुदिव दो दो, जातीनामं च जाव चउरिंदी । ___आयावं उज्जोयं, थावरनामं च सुहुमं च ।। 111/2. साहारमपज्जत्त, निद्दानिदं च पयलपयलं च । थीणं खवेति ताहे, अवसेसं जं च अट्ठण्हं ।। 111/3. वीसमिऊण नियंठो, दोहि उ समएहि केवले सेसे । पढमे निदं पयलं, नामस्स इमाओ पगडीओ।। 111/4. देवगति आणुपुव्वी विउवि संघयण पढमवज्जाइं। अन्नतरं संठाणं, तित्थयराहारनामं च ।। 111/5. चरमे नाणावरणं, पंचविहं दंसणं चउविगप्पं । पंचविहमंतरायं, खवइत्ता केवली होति।। अर्थ :- क्षपकश्रेणी में क्षय का क्रम इस प्रकार है अनन्तानुबंधी चतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व इसके पश्चात अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण-इस कषाय अष्टक का युगपद् क्षय प्रारम्भ हो जाता है। इन आठ प्रकृतियों के क्षयकाल के बीच में इन सत्रह कर्म- प्रकृतियों का क्षय होता है1. नरकगतिनाम 10. उद्योतनाम 2. नरकानुपूर्वीनाम 11. स्थावरनाम 3. तिर्यग्गतिनाम 12. सूक्ष्मनाम 4. तिर्यगानुपूर्वीनाम 13. साधारणवनस्पतिनाम 5. एकेन्द्रियजातिनाम 14. अपर्याप्तकनाम सिरिकुम्मापुत्तवरि :52- 2 2-30 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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