Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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(162) यतः= क्योंकि, प्रमादः= प्रमाद, परमद्वेषी= परमद्वेष को (उत्पन्न करने वाला है), परमो= सबसे बड़ा, रिपुः= शत्रु है, प्रमादो= प्रमाद, मुक्तिपूर्दस्युः= मुक्ति को लूटने वाला है (मुक्ति-प्राप्ति में बाधक है), प्रमादो= प्रमाद, नरकायनम्= नरक का मार्ग है।
(163) सयलसामग्गिं= समस्त सामग्री (जैसे मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र, धर्म श्रवण और उस पर श्रद्धा), को, लहिऊण= प्राप्त करके, जं= जो, पमायं= प्रमाद को, चइअ= त्याग देते हैं, (तथा) चारित्तपालगा= चारित्र (मुनि) धर्म का पालन करते हैं, ते= वे, धण्णा= धन्य, (एव), कयपुण्णा= पुण्यशाली (जीव) परमपयं= परमपद को, जन्ति= जाते हैं, (प्राप्त होते हैं)
(164) इअ= इस प्रकार, जिणुवएसं= जिनेन्द्र भगवान् के उपदेशों को, सुणिय = सुनकर, भावेण= शुद्ध भाव से, के वि= किसी ने, सम्मतं= सम्यक्त्व को, के वि= किसी ने, चारितं= चारित्र धर्म (मुनिधर्म) को, (और) के वि= किसी ने, कयपुन्ना= पुण्यशाली ने, देसविरइं= देश विरति (अणुव्रत) को, पडिवन्ना धारण किया।
(165) इत्थन्तरे= इसके बाद, कमलाभमरद्दोणदुमजीवा= कमला, भ्रमर, द्रोण व द्रुमा के जीव, जे- जो, पुरा = पूर्व के , सुक्के= महाशुक्र नामक स्वर्ग में, गया= गये, ते वे, (वहाँ से), चविय = च्युत होकर (आयु पूर्ण करके). भरहखित्ते= भरतक्षेत्र में, वेयड्ढे= वैताढ्य पर्वत पर, खेअरा= खेचर (विद्याधर), जाया = हुए।
(166) चउरो वि= चारों ही (कमला, भ्रमर, द्रोण व द्रुमा), भुत्तभोगा= विषय सुखों का उपभोग करते हुए, चारणसमणंतिए =चारण मुनि के पास में, गहिअचरणाचारित्र धर्म को ग्रहण किया, तत्थेव= वहीं पर, संपत्ता पहुँचकर, जिणिंदं= जिनेन्द्र भगवान् को, अभिवंदिअ = अभिवादन करके, निविट्ठा= बैठ गए।
(167) तं= उन्हें, दळूणं देखकर, चक्कधरो- चक्रवर्ती (देवादित्य), धम्मचक्किणं धर्मचक्र के (प्रवर्तक), नाह= स्वामी को, पुच्छइ= पूछता है, भयवं= हे भगवन्, सुमणा = शुद्ध मन वाले, चारणसमणा= चारणमुनि, केमि= कौन हैं (वे), कओ= कहाँ, पत्ता= प्राप्त होते हैं (रहते हैं)
- सिरिकुम्मापुत्तचरि
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