Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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(185) तत्थ= वहाँ पर, उवविट्ठो= बैठे हुए, इंदो= इंद्र (विद्याधरों के राजा), जगदुत्तमं= जगत् में श्रेष्ठ, जिणाधीसं= जिनेश्वर को, पुच्छइ= पूछता है, सामिअ = हे स्वामी, इमेहि= इन लोगों के द्वारा, तुभे= आपको, केण= किस, हेउणा= कारण से, न वंदिआ= वंदना नहीं की गई।
(186) पहू =जिनेश्वर देव, कहइ= कहते हैं, एएसिं- यहाँ पर, कुम्मापुत्ताउ= कूर्मापुत्र को, केवलं केवलज्ञान, जायं= होगा, एएण= उसी, कारणेणंकारण से, एएहि= इनके द्वारा, अम्हे- हमारी, वंदिआ= वंदना, न% नहीं, (की गई है)
(187) इंदो= इंद्रदेव, (विद्याधरों के राजा), पुणो= पुनः, पुच्छइ= पूछता है, (उस), महव्वई= महाव्रती को, एसो= ऐसा (केवलज्ञान), कइआ= कब, भावी= होगा, पहुणाइलैं= जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा गया, सत्तमदिणस्स= सातवें दिन के, तइअम्मि= तीसरे, पहरम्मि= पहर में (कूर्मापुत्र को केवलज्ञान होगा)
(188) दिणयरो ब्व= सूर्य के समान, महिअले-पृथ्वी तल पर, विहरंतो विहार करने वाले, तमतिमिराणि-अज्ञान रूपी अंधकार को, हरंतो= नष्ट करते हुए, जयइ= विजयी (वे), जगदुत्तमजिणवरो= जगत् में उत्तम जिनेन्द्र भगवान्, इअ = इस प्रकार, कहिऊण= कहकर, निउत्तो= चले गए।
(189) तत्तो= तब, महसत्तो- पराक्रमी, कुम्मापुत्तो= वह कूर्मापुत्र, गिहत्थवेसं= गृहस्थावेष को, विमुत्तु= छोड़कर, सविसेसं = विशेष प्रकार के, निज्जिअकिलेसं= क्लेशों / दुखों को नष्ट करने वाले, मुणिवरवेसं= श्रेष्ठ मुनिवेष को, गिण्हइ= ग्रहण करता है।
(190) सुरविहिओ= देवताओं द्वारा निर्मित, अमले= निर्मल, कणयकमले= स्वर्ण विमान पर, आसीणो= बैठे हुए, समलेवरहिअनिअचित्तो= श्रम के लेप से रहित हृदयवाला, सो= वह (कूर्मापुत्र) केवलिपवरो= केवली के श्रेष्ठ,
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सिरिकुम्मापुत्तचरि
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