Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 95
________________ (191) तथाहि= जैसे, धम्मस्स= धर्म के, दाणतवसीलभावणा= दान, तप, शील, भावना, चउरो= चार, भेआ= भेद, हवन्ति= होते हैं, तेसु वि= उनमें भी, भावो= भाव धर्म , परमो= श्रेष्ठ है, (और) असुहकम्माणं= अशुभ कर्मों के लिए, परमोसहं= श्रेष्ठ औषधि (है) (192) जहेव= जिस प्रकार, दाणाणं= दानों में, अभयदाणं= अभयदान, नाणाण= ज्ञानों में, केवलं नाणं केवलज्ञान (और), झाणाण= ध्यानों में, सुक्कझाणं= शुक्ल ध्यान (श्रेष्ठ है) तह= उसी प्रकार, सव्वधम्मेसु= सभी धर्मों में, भावो भाव धर्म (श्रेष्ठ है)। (193) जहा= जैसे, कम्माण= कर्मो में, मोहणिज्जं= मोहनीय कर्म, सव्वेसु= सभी, इंदिएसु= इन्द्रियों में, रसणा= रसना इन्द्रिय (तथा), वएसु= महाव्रतों में, बंभव्वयं= ब्रह्मचर्यव्रत (प्रमुख है) तह= वैसे ही, सव्वधम्मेसु= सभी धर्मों में, भावो= भाव धर्म (प्रमुख है)। (194) गिहवासे वि= गृहस्थावस्था में भी, वसंता= रहते हुए, भव्वा= भव्य पुरुष, मणहरेणं= मनोहर, भावेण= शुद्ध भाव से, केवलं नाणं= केवलज्ञान को, पावन्ति= प्राप्त कर लेते हैं, इत्थ= इसके लिए, अम्हे= हमारा (मेरा), उदाहरणं= उदाहरण(है)। (195) इअ = इस प्रकार के, देसणं= उपदेश को, सुणित्ता= सुनते हुए, अवगयतत्ता= तत्त्वों के जानकार, वरसत्ता= महापराक्रमी, मायपिअरो= माता-पितारूप मुनि, परिपालियचारित्ता= चारित्र धर्म का पालन करते हुए, सुग्गइं= सद्गति (मोक्ष) को, पत्ता= प्राप्त हुए। (196) अन्ने वि= दूसरे भी, बहुअभविया= बहुत से भव्य लोगों ने, केवलिस्स= केवली के, वयणाइं= वचनों को, आयण्णिय = सुनकर, सम्मत्तं= सम्यग्दर्शन, च- और, चरित्तं सम्यक चारित्र, च= तथा, देसचरित्तं- देश विरति नामक अणुव्रत को, पडिवन्ना= स्वीकार / ग्रहण किया। 74 सिरिकुम्मापुत्तचरि 26-802325 8888888888 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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