Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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सुपसिद्धे= सुप्रसिद्ध, रयणसंचयनामा= रत्नसंचय नाम की, नयरी= नगरी
(थी)।
(150) तीए = उस नगरी में, आइच्चो= सूर्य (के समान), तेअविजिओ= तेज को जीतने वाला, चउसठिसहस्सो= चौसठ हजार, रमणीरमणो= रमणियों (स्त्रियों) को रमण करने वाला, देवाइच्चो= वह देवादित्य, चक्कधरो= चक्रवर्ती, रज्ज= राज्य का, परिभुंजए = उपभोग करता था।
(151) अण्णदिणे= किसी अन्य दिन, विहरंतो= विहार करते हुए, जगदुत्तम= जगत् में उत्तम, नामधेयं= नाम वाले, तित्थयरो= तीर्थकर (भगवान् महावीर) वरतरुवरप्पहाणे= श्रेष्ठ, प्रधान वृक्षों वाले, तीसुज्जाणे= उसी उद्यान में, समोसरिओ= पधारे/आये।
(152) वेमाणिअ= वैमानिकों, जोइसवणेहि= ज्योतिष्कों, व्यंतर (एवं) भवणेहि भवनवासी देवों द्वारा, रयणं= रत्न, कणय= सोना (और), रूप्पमयं= चाँदी से युक्त, प्पागारतिगेण= इत्यादि तीन प्रकार के, रमणिज्जं-सुन्दर, समोसरणं समवसरण को, विणिम्मियं= निर्मित किया (बनाया)।
(153) दिणयरागमणं= सूर्य के आगमन से, संतुट्ठमणो= संतुष्टमन वाले, चक्को ब= चकवा की तरह, जिणागमणं= जिन भगवान् के आगमन को, सोऊण- सुनकर, (संतुष्ट मन वाला), चक्की= वह चक्रवर्ती राजा, सपरिवारो समेओ= अपने परिवार के सहित, वंदणकए = वन्दना के लिए (गया)।
(154) जिणंद= जिनेन्द्र भगवान् की, आयाहिणं= दक्षिण पार्श्व से, तिक्खुत्तोतीन बार, पयाहिणं= प्रदक्षिणापूर्वक, वंदिय = वन्दना, करिय = की (तथा), एस= इस प्रकार, कयंजली= हाथ जोड़कर, जहजुग्गम्मि= यथायोग्य, पएसे= स्थान पर, उवविट्ठो= बैठ गया।
(155) तत्तो= तब, सो= वह, पहू= जिनेन्द्र भगवान्, भविअजणाणं= भव्य लोगों के लिए, सुहासमाणीइ= अमृत तुल्य, वाणीए = वाणी से, भवसायरं= संसार रूपी सागर को, तरणीए = पार करने के लिए, तारणिक्कं= एकमात्र जहाज रूपी, धम्म= धर्म को, कहइ% कहते हैं।
सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
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