Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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(114)
यतः = क्योंकि, दानं = दान, ददातु = देना, मौनं = मौन, विदधातु = धारण करना, चापि = और भी, वेदादिकं = वेद आदि ग्रंथों का, विदांकरोतु - आत्मसात् (श्रद्धान) करना / ज्ञानार्जन करना (तथा), देवादिकं = देव आदि का, नित्यमेव = नित्य ही, ध्यायतु = ध्यान करना, (किंतु ), चेद् = ये, सर्वम्= सब, दया=दया, न= नहीं, (होंने से), निष्फलमेव = निष्फल ही हैं ।
(115)
यत्र = जहाँ, दया = दया, विद्यते = विद्यमान, न=नहीं है, ( वहाँ), न=न, सा = वह, दीक्षा = दीक्षा है, न=न, सा= वह, भिक्षा = भिक्षा है, न = न, तत् = वह, दानं = दान है, न=न, तत् = वह, तपः = तप है, (न) तद् = वह, ध्यानं = ध्यान है, (और) न=न, तत् = वह, मौनं = मौन है।
(116)
तो = तब, नरवइणा = राजा द्वारा, आहूया = बुलाए गए, महागुणिणो = महान् गुणवान, जिणसासणसूरिणो - जिनशासन (धर्म) के आचार्य, जिणसमयतत्तसारं= जिन दर्शन के तत्व के सार (तथा), धम्मसरूवं = धर्म के स्वरूप को, परूवेन्ति = स्पष्ट करते हैं।
(117)
तथाहि = जैसे, छज्जीवनिकायाणं = षड्जीव निकाय (छह प्रकार के जीवों) के, परिपालणमेव = परिपालन से ही, धम्मो = धर्म, विज्जए = होता है, जेणं = क्योंकि, महव्वएसुं - महाव्रतों में, पढमं = प्रथम, पाणाइवायवयं= प्राणातिपात व्रत (अहिंसा) ( है ) ।
(118)
च = और, दशवैकालिके = दशवैकालिक में, उक्तं = कहा है, ( औ), महावीरेण = भगवान् महावीर द्वारा, दिट्ठा = दृष्ट, देसिअं = उपदिष्ट, तत्थिमं= उनमें ( महाव्रतों में ) सव्वभूएसु = सभी जीवों में, संजमो = संयम में, निउणा= निपुण, अहिंसा = अहिंसा का, पढमं = प्रथम, ठाणं = स्थान है ।
(119)
उपदेशमालायाम् = उपदेशमाला में, ( कहा है), छज्जीवनिकाय = षड्जीव निकाय पर (छह प्रकार के जीवों पर), दया = दया, विवज्जिओ = नहीं करने वाला, नेव= न ही, दिक्खिओ = दीक्षित मुनि है, न=न, गिही = श्रावक है,
सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
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