Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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बत्तीसपंचगुणिया विजया उ सयं हविज्ज सट्ठिजुअं । भर हेरवयक्खेत्तं सतरिसयं होइ खित्ताणं ।। 147 ।
अर्थ : बत्तीस को पाँच से गुणा करने पर एक सौ साठ विजय होते हैं। ( उनमें ) भरत और एरावत क्षेत्र को जोड़ने पर ( 5+5 ) कुल एक सौ सत्तर क्षेत्र होते हैं।
उक्कोसपए लब्मइ विहरंत जिणाण तत्थ सतरिसयं । इअ पासंगिअमुत्तं पक्कतं तं निसामेह ।। 148 ।। अर्थ : वहाँ प्रत्येक पवित्र क्षेत्र में विचरण करते हुए अधिकाधिक एक सौ सत्तर 'जिन' प्राप्त होते हैं। इनकी प्रस्तुत प्रासंगिक कथा कही गई है, उसे सुनो
तथ य महाविदेहे सुपसिद्धे मंगलावईविजए ।
नयरी अ रयणसंचयनामा धणधन्न अभिरामा ।। 149 ।। अर्थ : वहाँ महाविदेह क्षेत्र में मंगलावती विजय में धन-धान्य से युक्त, सुन्दर और सुप्रसिद्ध रत्नसंचय नाम की नगरी (थी)
ती देवाइच्चो चक्कधरो तेअविजिअआइच्चो । चउसठिसहस्सरमणीरमणो परिभुंजए रज्जं ।। 150 ।। अर्थ : उस नगरी में सूर्य के तेज को जीतने वाला, 64000 रमणियों में रमण (आनंद) करने वाला वह देवादित्य चक्रवर्ती राज्य का उपभोग करता था ।
अण्णदिणे विहरंतो जगदुत्तमनामधेयतित्थयरो | वरतरुअरप्पहाणे तीसुज्जाणे समोसरिओ ।। 151 || अर्थ : किसी अन्य दिन विहार करते हुए जगत् में उत्तम नाम वाले तीर्थङ्कर भगवान् महावीर श्रेष्ठ प्रधान वृक्षों वाले उसी उद्यान में पधारे / आए ।
वेमाणिअजोइसवणभवणेहि विणिम्मियं समोसरणं । रयणकणयरुप्पमयप्पागारतिगेण रमणिज्जं ।। 152 ||
सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
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