Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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ते धन्ना कयपुण्णा जे णं लहिऊण सयलसामग्गिं।
चइअ पमायं चारित्तपालगा जन्ति परमपयं।। 163|| अर्थ : समस्त सामग्री को (जैसे- मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र, धर्मश्रवण और
उस पर श्रद्धा) प्राप्त करके जो प्रमाद को त्याग देते हैं (तथा) चारित्र (मुनि) धर्म का पालन करते हैं, वे धन्य एवं पुण्यशाली (जीव) परमपद (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं।
इअ सुणिय जिणुवएसं सम्मत्तं के वि के वि चारित्तं।
भावेण देसविरइं पडिवन्ना के वि कयपुन्ना।। 164 || अर्थ : इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के उपदेशों को सुनकर शुद्धभाव से
किसी ने सम्यक्त्व को, किसी ने चारित्र (मुनि) धर्म को (और) किसी पुण्यवान ने देशविरति (अणुव्रत) को धारण किया।
इत्थंतरे - कमलाभमरद्दोणदुमजीवा जे पुरा गया सुक्के।
ते चविय भरहखित्ते वेयड्ढे खेअरा जाया।। 165 ।। अर्थ : इसके बाद -
कमला, भ्रमर, द्रोण व द्रुमा (राजा-रानी) के जीव, जो पूर्व से ही महाशुक्र स्वर्ग में थे। वे (वहाँ) से च्युत होकर (आयु पूर्ण करके) भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत पर खेचर नामके विद्याधर हुए।
चउरो वि भुत्तभोगा चारणसमणंतिए गहिअचरणा।
तत्थेव य संपत्ता जिणिंदमभिवंदिअ निविट्ठा।। 166 ।। अर्थ : (वे) चारों ही (कमला, भ्रमर,द्रोण व द्रुमा) विषयसुखों का उपभोग
करते हुए चारण मुनि के पास में चारित्र धर्म को ग्रहण किया और वहीं पर पहुँच कर जिनेन्द्र भगवान् को अभिवादन करके बैठ गए।
तं दठूणं पुच्छइ चक्कधरो धम्मचक्किणं नाहं।
भयवं केमी चारणसमणा सुमणा कओ पत्ता।। 167 ।। अर्थ : उन्हें देखकर चक्रवर्ती (देवादित्य) धर्मचक्र के (प्रवर्तक) स्वामी को . पूछता है- "हे भगवान् ! शुद्ध मन वाले चारण मुनि कौन हैं?
(वे) कहाँ रहते हैं ?
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___ सिरिकुम्मापुत्तवरि ।
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