Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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अर्थ : वैमानिक, ज्योतिष्क, व्यंतर (तथा) भवनवासी देवों द्वारा रत्न, सोना
और चाँदी आदि से युक्त तीन प्रकार से सुन्दर समवसरण बनाया गया।
सोऊण जिणागमणं चक्की चक्को व्व दिणयरागमणं ।
संतुट्ठमणो वंदणकए समेओ सपरिवारो।। 153|| अर्थ : सूर्य के आगमन से संतुष्ट मन वाले चकवा की तरह जिन भगवान्
के आगमन को सुनकर (संतुष्ट मन वाला) वह देवादित्यचक्रवर्ती राजा अपने परिवार सहित वन्दना के लिए (गया)।
तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करिय वंदिय जिणंदं ।
जहजुग्गम्मि पएसे कयंजली एस उवविट्ठो।। 154 ।। अर्थ : जिनेन्द्र भगवान् की दक्षिण पार्श्व से तीन बार प्रदक्षिणा पूर्वक
वन्दना की। इस प्रकार हाथ जोड़कर यथायोग्य स्थान पर बैठ गया।
तत्तो भविअजणाणं भवसायरतारणिक्कतरणीए।
धम्मं कहइ पहू सो सुहासमाणीइ वाणीए।। 155 ।। अर्थ : तब वे प्रभू (जिनेन्द्र भगवान्) भव्य लोगों के लिए अमृत तुल्य वाणी
संसार रूपी सागर से पार होने के लिए एक मात्र जहाज रूपी धर्म को कहते हैं।
भो भो सुणंतु भविआ कहमवि निगोअमज्झओ जीवो।
निग्गंतूण भवेहिं बहूएहिं लहइ मणुयत्तं।। 156 ।। अर्थ : अरे! अरे!! भव्यपुरुषों ! सुनो- (यह) जीव निगोदयोनि के मध्य
से निकलकर अनेक प्रकार के भावों से किसी तरह भी (बड़े प्रयत्न से) मनुष्य भव को प्राप्त करता है।
मणुअत्ते वि हु लद्धे दुलहं पाविज्ज खित्तमायरिअं।
उप्पज्जन्ति अणेगे जं दस्सुमिलक्खुयकुलेसु।। 157 || 32
सिरिकुम्मापुत्तचरि
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