Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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(24) सोवह कुमार, पायालमज्झमाणीओ=पाताल के मध्य में स्थित, बहुसालवडस्स= बहुशाल नामक वट वृक्ष के, अहेपहेण% नीचे बने हए, कणगमयं= सोने से युक्त, सुरभवणं= देवताओं के भवन से, अईव अत्यधिक, रमणिज्जं= सुन्दर (उसके भवन को) पासइ= देखता है।
(25) च और, तं-वह (भवन), केरिसं-कैसा था, रयणमयखंभं रत्नमय खम्भों की, पंतीकंतीभरभरि= पंक्तियों की काँति की चमक से चमकित, भिंतरपएसं= अंदर के प्रदेश वाला, मणिमयं मणियों से बने हुए, धोरणि दरवाजों के, तोरणं तोरण वाला, तरुणं तेज, पहाकिरणं-प्रकाश की किरण से, कब्बुरिअं-चितकबरा (विभिन्न रंगों को प्रदर्शित करने वाला था)।
(26) मणिमयखम्भ मणि के युक्त खम्भे के, अहिट्ठिअ= नीचे (बनी हुई), पुत्तलिआ-पुत्तलिका की, केलिखोभिअजणोहं= क्रीड़ाओं से लोगों में क्षोभ (ईर्ष्या) को उत्पन्न करने वाले (तथा), भत्ति= दीवालों पर, बहुचित्तचित्तिअं=अनेक प्रकार के चित्रों से चित्रित, गवक्खसंदोहं-खिड़कियों के समूह से, कयसोहं की गई शोभा वाला (वह भवन था)
(27) एयं=इस तरह, भुवणचित्तं= संसार के (लोगों के) चित्त को, चुज्जकरं आश्चर्ययुक्त (एवं), अइविम्हयं-अत्यन्त विस्मय, आवन्नो= युक्त सुरभवणं उस देवभवन को, अवलोइऊणं= देखकर, कुमरो-राजकुमार, इअ= इस तरह, चिंतिउं विचार करने में, लग्गो लग गया।
(28) किं-क्या, एअं=यह, इंदजालं= इंद्रजाल (जादू) है, अहवा अथवा, एअं यह, (मैं), सुमिणम्मि=स्वप्न में, दीसए =देखता हूँ, अहयं= अथवा(मुझे) नियनयराओ=अपने नगर से, इह-इस, भवणे भवन में, केण=किसके द्वारा, आणीओ लाया गया है।
(29) इय =इस प्रकार, संदेहाकुलिअं=संदेह से व्याकुल, कुमरं कुमार को, पल्लंके= पलंग पर विनिवेसिऊण= बैठाकर, वन्तरवहू व्यन्तरवधू (यक्षिणी), विन्नवइ-निवेदन करती है, सामिअ= हे स्वामी, (मेरे) वयणं= वचनों को, निसामेसु सुनो।
सिरिकुम्मापुत्तचरि ।
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