Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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(42) यत् यह, आगमे आगम में, उक्तम्= कहा गया है, मणुयलोगस्स मनुष्य लोक की, गंधो= गंध, चत्तारि=चार, पंच-पाँच, सयाइं सौ, जोयणं योजन, उड्ढं= ऊपर, वच्चइ-पहुँचती/जाती है, जेणं जिससे, तेण=वे, देवा देवता आदि, हु-निश्चय ही, न नहीं, आयन्ति आते हैं।
(43) एव इस तरह, जिणे जिनेन्द्र भगवान् के, पंचसुकल्लाणेसु= पंच कल्याणकों में, च=और, रिसी ऋषियों के, महतवाणुभावाओ-महान् (कठोर) तप के भाव (प्रभाव) से, य =तथा, जम्मंतर नेहेण= पूर्व जन्म के स्नेह के कारण, हु= निश्चय ही, सुरा= देवता आदि, इह-यहाँ पर (संसार में) आगच्छन्ति= आते हैं।
(44) तउ-तब, केवलिणा केवली के द्वारा, ते उन्हें, तीसे उस कुमार के, जम्मंतरसिणेहाइ पूर्व जन्म के स्नेह आदि को, अइबलिओ-अत्यन्त बलवान (पराक्रम युक्त) कम्मपरिणामो कर्म के परिणाम/फल को, सामिय= हो स्वामी, बिंति कहा गया।
(45) भयवं-हे भगवन्!, कया वि=कभी भी, कह वि= कैसे भी, अम्हाण= हमारा, कुमारसंगमो कुमार से मिलन, होही होगा, तेण=उन (केवली) ने, उत्तं कहा, होही होगा, जयेह (जया+इह) जब यहाँ, वयम् हम सब, पुण=पुनः, आगमिस्सामो आएँगे।
(46) इअ= इस प्रकार के, संबंध सम्बन्ध को, सुणिउं=सुनकर, कुमरमायपियरो=कुमार के माता-पिता, संविग्गा मुक्ति की इच्छा करने लगे, य =और, लहुपुत्तं= छोटे पुत्र को, रज्जे= राज्य पर, ठविअं बैठा कर, तयंतिए =उसी समय (उन केवली के) पास, चरणं चरणों के, आवन्ना आश्रित हो गए।
(47) दुक्करतवचरणपरा= अत्यंत दुष्कृत तप को ध्याने में, परायणा तल्लीन, दोसवज्जियाहारे दोष रहित भोजन को (लेते हुए), निस्संगरंगचित्ता=राग । सिरिकुम्मापुत्तचरि
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