Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ देवानुपूर्वी, वैकिय शरीर प्रथम वज्रवृषभ आदि (वज्रवृषभनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, कीलिक, और सेवार्त) पाँच संहनन, दूसरे संस्थान (न्यग्रोधपरिमण्डल ,सादी, कुब्ज, वामन एवं हुंड) और तीर्थंकर नाम कर्म, आहारकनामकर्म आदि का क्षय करता है। चरमे नाणावरणं पंचविहं दंसणं चउविगप्पं । पंचविहमंतरायं खवइत्ता केवली होइ।। 183 ।। अर्थ : अंत में पाँच ज्ञानावरणकर्म, चार दर्शनावरण (चक्षु, अचक्षु, अवधि एवं केवल)तथा पाँच अन्तराय कर्म (दान, लाभ, भोग,उपभोग एवं वीर्य)को क्षय करके केवली होते हैं। इअ खवगसेणिपत्ता समणा चउरो वि केवली जाया। ते गंतूण जिणते केवलिपरिसाइ आसीणा ।। 184 || अर्थ : इस प्रकार क्षपक श्रेणी को प्राप्त (वे) चारों ही श्रमण केवलज्ञानी हो गए। वे जिनेन्द्र भगवान् के पास में जाकर केवलज्ञानी की सभा में बैठ गए। तत्थुवविट्ठो इंदो पुच्छइ जगदुत्तमं जिणाधीसं । सामिअ इमेहि तुमे न वंदिआ हेउणा केण।। 185 ।। अर्थ : वहाँ बैठे हुए इन्द्र (विद्याधरों के राजा) ने जगत् में श्रेष्ठ जिनेश्वर देव को पूछा - हे स्वामी! इन लोगों के द्वारा आपको किस कारण से वंदना नहीं की गई। कहइ पहू एएसिं कुम्मापुत्ताउ केवलं जायं । एएण कारणेणं एएहि न वंदिआ अम्हे।। 186 || अर्थ : जिनेन्द्र देव कहते हैं – “यहाँ पर उन चारों में से कूर्मापुत्र को केवलज्ञान होगा, इसी कारण से इनके द्वारा मेरी (हमारी) वंदना नहीं की गई है)। पुच्छइ पुणो वि इंदो कइआ एसो महव्वई भावी। पहुणाइट्ठ सत्तमदिणस्स तइअम्मि पहरम्मि।। 187 ।। 38 । सिरिकुम्मापुत्तचरिअं ।। 362283 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110