Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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अर्थ : इन्द्र देव (विद्याधरों का राजा) पुनः पूछता है -उस महाव्रती को
ऐसा (केवलज्ञान) कब होगा? जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा गयासातवें दिन के तीसरे पहर में (कूर्मापुत्र को केवलज्ञान होगा)।
इअ कहिऊण निउत्तो जगदुत्तमजिणवरो दिणयरो व्व ।
तमतिमिराणि हरंतो विहरंतो महिअले जयइ।। 188|| अर्थ : सूर्य के समान पृथ्वी पर विहार करने वाले अज्ञान रूपी अंधकार
को नष्ट करते हुए विजयी (वे) जगत् में उत्तम जिनेन्द्र भगवान् इस प्रकार कह कर चले गए।
तत्तो कुम्मापुत्तो गिहत्थवेसं विमुत्तु महसत्तो।
गिण्हइ मुणिवरवेसं सविसेसं निज्जिअकिलेसं।। 189 || अर्थ : तब पराक्रमी वह कूर्मापुत्र गृहस्थवेष को छोड़कर विशेष प्रकार के
क्लेशों/दुःखों को नष्ट करने वाले श्रेष्ठ मुनिवेष को ग्रहण करता है।
सुरविहिअकणयकमले अमले समलेवरहिअनिअचित्तो।
आसीणो सो केवलिपवेरो धम्म परिकहेइ।। 19011 अर्थ : देवताओं द्वारा निर्मित निर्मल स्वर्ण विमान पर बैठे हुए श्रम के लेप
से रहित हृदय वाला वह (कूर्मापुत्र) केवली (मुनि) के श्रेष्ठ धर्म को कहता है।
तथाहि - दाणतवसीलभावणभेआ चउरो हवन्ति धम्मस्स।
तेसु वि भावो परमो परमोसहमसुहकम्माणं ।। 191 ।। अर्थ : जैसे
धर्म के दान, तप, शील व भावना (ये) 4 भेद होते हैं, उनमें भी भाव धर्म श्रेष्ठ है। (और) अशुभ कर्मों के लिए उत्कृष्ट/श्रेष्ठ औषधि है।
दाणाणमभयदाणं नाणाण जहेव केवलं नाणं। झाणाण सुक्कझाणं तह भावो सव्वधम्मेसु ।। 192||
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सिरिकुम्मापुत्तचरि
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