Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 63
________________ अनन्तहंसकृत सिरिकुम्मापुत्तचरिअं (शब्दार्थ) असुरिंदसुरिंद = असुरों (राक्षसों) एवं देवों द्वारा, पयकमलं =चरण-कमलों को, पणय = प्रणाम किए गए, वद्धमाणं = भग. वर्धमान को, नमिऊण = नमस्कार करके, अहं = मैं, कुम्मापुत्तचरित्तं= कूर्मापुत्र के चरित्र को, समासेणं= संक्षेप में, वोच्छामि= कहता हूँ। नयरेहापत्त= न्याय की रेखा को प्राप्त, सयलपुरिसवरे= समस्त श्रेष्ठ पुरुषों से युक्त, रायगिहे= राजगृह नामके, वरनयरे= श्रेष्ठ नगर में, गुणनिलए =गुण नामक यक्ष मन्दिर में, गुणसिलए= गुणशिलक नामक उद्यान में, वद्धमाणजिणो= भग. वर्धमान, समोसढो= आए। (3) मणिकणयरयण= मणि, सोना और रत्नों के, सारप्पायार= सारभूत अनेक प्रकार की, पहापरिप्फुरिअं= प्रभा से स्फुरित/शोभायमान(तथा) बहुपावकम्म= बहुत से पाप कर्मों को, ओसरणं= दूर करने वाले, देवेहि देवों द्वारा समोसरणं= समवसरण, विहि =रचा गया। तत्थ= वहाँ (बगीचे में), निविट्ठो= स्थित, कणयसरीरो= सोने के समान पीले शरीर वाले, समुद्दगम्भीरो= समुद्र के समान गम्भीर, वीरो= भग. महावीर, दाणाइचउपयारं= दान आदि चार प्रकार के, परमरम्म= महान् और श्रेष्ठ, धम्म= धर्म को, कहेइ= कहते हैं। (5) दाणतवसील- दान,तप,शील (और) भावणभेएहि= भावना के भेद से, धम्मो= धर्म, चउब्विहो= चार प्रकार का, हवइ= होता है , तेसु= उन, सव्वेसु= सभी में, भावो= भाव धर्म को, महप्पभावो= महान् भावना वाला, मुणेयव्वो= जानना चाहिए। 42 सिरिकुम्मापुत्तचरिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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