Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 57
________________ सामिय सिवगइगामिय अम्हाणं केवलं कया अत्थि। इअ कहिए जगदुत्तमनामजिणिंदो समुद्दिसइ।। 173।। अर्थ : हे स्वामी! हम सबको मोक्ष प्राप्त कराने वाला केवलज्ञान कब (प्राप्त) होगा? (तब) जगत् में उत्तम नाम वाले जिनेन्द्र भगवान् इस प्रकार कहते हुए उपदेश देते हैं (व्याख्या करते हैं)। जइआ कुम्मापुत्तो तुम्हाण कहिस्सइ सयं चेव । महसुक्कमंदिरकहं तइआ भो केवलं अत्थि।। 174 || अर्थ : जिस समय कूर्मापुत्र स्वयं से संबंधित महाशुक्र स्वर्ग के मन्दिर (विषय में) कहेगा, उस समय ही आपको केवलज्ञान होगा। इअ सुणिअं मुणिअतत्ता तिगुत्तिगुत्ता जिणं नमंसित्ता। तस्स समीवे पत्ता चउरो चिट्ठन्ति तुसिणीआ ।। 175 || अर्थ : इस प्रकार सुनकर तत्त्वों को जानने वाले तीनों गुप्तियों (मन, वचन व काय) से युक्त जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके उनके समीप में पहुँचे। (वे सभी) चारों मौन होकर बैठ गए। ते ताव तेण वुत्ता भद्दा तुझं जिणेण नो कहिअं। महसुक्के जं मंदिरविमाणसुक्खं समणुभूअं।। 176 || अर्थ : तब वे (चारण मुनि) उससे (कूर्मापुत्र से) कहते हैं – हे महानुभाव! जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा आपको अच्छी तरह अनुभव किए महाशुक्र नामक मन्दिर विमान के स्वर्ग के सुख को (निश्चय ही) नहीं कहा गया है। इअ वयणसवणसंजायजाइसरणेण चारणा चउरो। संभरिअपुव्वजम्मा ते खवगस्सेणिमारूढा।। 177 || अर्थ : इस प्रकार के वचनों को सुनकर उत्पन्न जाति-स्मरण से (तथा) पूर्वजन्म के स्मरण से वे चारों चारण मुनि क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो गए। 36 सिरिकुम्मापुत्तचरिअं 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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