Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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अर्थ : सौगन्धिक, कर्केतन, मरकत, गोमेद, इन्द्रनील, जलकांत, सूर्यकान्त,
मसारगल्ल, अंक, स्फटिक इत्यादि रत्नों के लक्षण, गुण, रूप (रंग), नाम व गोत्र आदि मणियों की परीक्षा करने में विलक्षण/तीक्ष्ण बुद्धिवाला वह (व्यापारी) सभी प्रकार के (मणियों को) जानता है।
अह अन्नया विचिंतइ सो वणिओ किमवरेहि रयणेहिं ।
चिंतामणी मणीणं सिरोमणी चिंतिअत्थकरो।। 77|| अर्थ : इसके बाद एक बार वह व्यापारी विचार करता है (कि) अन्य
(दूसरे) रत्नों से क्या (प्रयोजन)? इच्छित वस्तु (कामना) को पूर्ण करने वाला चिंतामणि रत्न (समस्त) मणियों में श्रेष्ठ है।
तत्तो सो तस्स कए खणेइ खाणीउ णेगठाणेसु।
तह वि न पत्तो स मणी विविहेहि उवायकरणेहिं।। 78|| अर्थ : तब वह (व्यापारी) उस चिंतामणि के निमित्त से अनेक स्थानों में
खानों को खोदता है। फिर भी अनेक प्रकार के उपायों को करने से (भी) उसे मणि प्राप्त नहीं होती।
केण वि भणिअं वच्चसु वहणे चडिऊण रयणदीवम्मि।
तत्थत्थि आसपूरी देवी तुह वंछियं दाही।। 79 ।। अर्थ : (तब) किसी के द्वारा कहा गया (तुम) जहाज पर चढ़कर रत्नद्वीप
को जाओ। वहाँ आशापूरी देवी है (वह) तुम्हें इच्छित वस्तु देगी।
तो तत्थ रयणदीवे संपत्तो इक्कवीसखवणेहिं।
आराहइ तं देविं संतटठा सा इमं भणइ।। 80|| अर्थ : तब (वह व्यापारी) वहाँ रत्नद्वीप में पहुँचा। इक्कीस व्रतों की
आराधना द्वारा उस आशापूरी देवी को संतुष्ट किया। वह देवी इस प्रकार कहती है
भो भद्द केण कज्जेण अज्ज आराहिआ तए अहयं । सो भणइ देवि चिंतामणीकए उज्जमो एसो।। 81 ||
सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
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