Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ अर्थ : हे महानुभाव! आज किस कार्य से तुम अधिक आराधना कर रहे हो। वह (व्यापारी) कहता है- हे देवी! चिंतामणि रत्न के लिए यह उद्यम है। देवी भणेइ भो भो नत्थि तुहं कम्ममेव सम्मकरं। जेणप्पन्ति सुरा वि य धणाणि कम्माणुसारेणं ।। 82 || अर्थ : देवी कहती है- अरे! अरे!! (भद्रपुरुष) तुम्हारे कर्म ही अच्छा/शुभ करने योग्य नहीं हैं। क्योंकि देवता भी कर्मों के अनुसार धन अर्पित करते हैं। सो भणइ जइ मह कम्मं हवेइ तो तुज्झ कीस सेवामि। तं मज्झ देसु रयणं पच्छा जं होउ तं होउ।। 83|| अर्थ : वह (व्यापारी) कहता है- यदि मेरे कर्म (शुभ) होते, तो तुम्हारी क्यों सेवा करता। इसलिए मुझे रत्न दें। बाद में जो हो, सो हो। दत्तं चिंतारयणं तो तीए तस्स रयणवणिअस्स। सो निअगिहगमणत्थं संतुट्ठो वाहणे चडिओ।। 84 || अर्थ : तब उस रत्न के व्यापारी को उस देवी ने चिंतामणि रत्न दिया। संतुष्ट होता हुआ वह अपने घर जाने के लिए जहाज पर चढ़ गया । पोअपएसनिविट्ठो वणिओ जा जलहिमज्झमायाओ। ताव य पुत्वदिसाए समुग्गओ पुण्णिमाचंदो।। 85 ।। अर्थ : जहाज के प्रदेश पर (ऊपर वाले भाग पर) बैठा हुआ वह व्यापारी जब समुद्र के मध्यभाग में आया, तब पूर्व दिशा में पूर्णिमा का चाँद उदित हो गया। तं चंदं दठूणं निअचित्ते चिंतए सो वाणियओ। चिंतामणिस्स तेअं अहियं अहवा मयंकस्स।। 86 || अर्थ : उस चन्द्रमा को देखकर वह व्यापारी अपने चित्त (मन) में विचार करता है (कि) चिंतामणि रत्न का तेज अधिक है अथवा चन्द्रमा का। सिरिकुम्मापुत्तवरिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110