Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 42
________________ इतश्च रायगिहं वरनयरं वरनयरंगंतमंदिरं अस्थि । धणधन्ना समिद्धं सुपसिद्धं सयललोगम्मि ।। 97 ।। और इधर अर्थ : राजगृह नामक श्रेष्ठ नगर में धन-धान्य की समृद्धि वाला समस्त लोक में प्रसिद्ध न्याय युक्त (वास्तुशास्त्रोक्त ) सुन्दर (और) भव्य स्वरूप वाला मन्दिर (महल) है। - तत्थ य महिंदसीहो राया सिंह व्व अरिकरिविणासे । नामेण जस्स समरंगणम्मि भज्जइ सुहडकोडी ।। 98 ।। अर्थ : वहाँ शत्रुओं के हाथों का विनाश करने वाले सिंह के समान महेन्द्रसिंह नाम का राजा था। जिसके नाम से समरांगण (युद्ध - मैदान) में करोड़ों योद्धा भग्न / नष्ट हो जाते थे। तस्स य कुम्मादेवी देवी इव रूवसंपया अस्थि । विणयविवेगवियारप्पमुहगुणाभरणपरिकलिया ।। 99 ।। अर्थ : विनय, विवेक, विचारशील आदि मुख्य गुणों से अलंकृत तथा परिपूर्ण देवी के समान रूप से सम्पन्न उस राजा की कूर्मा ( नामकी) रानी थी । विसयसुहं भुजंताण ताणं सुक्खेण वच्चए कालो । जह अ सुरिंदसईणं अहवा जह वम्महरईणं । । 100 ।। अर्थ : इन्द्र और शची ( इन्द्राणी) अथवा कामदेव और रति के समान विषयसुखों को भोगते हुए उनका समय सुख से व्यतीत हो रहा था । अण्णदिणे सा देवी निअसयणिज्जम्मि सुत्तजागरिया | सुरमवणं मणहरणं पिच्छइ सुमिणम्मि अच्छरियं ।। 101 ।। अर्थ : किसी अन्य दिन वह कूर्मारानी अपनी शय्या पर सोती हुई जाग गई । (वह) स्वप्न में आश्चर्यजनक ( एवं ) मन को हरने वाले देव - भवन को देखती है। सिरिकुम्मापुत्तचरिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only 21 www.jainelibrary.org

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