Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 35
________________ एएण कारणेणं नाह अहं दुक्खसल्लियसरीरा । विहिविलसिअम्मि वंके कहं सहिस्सामि तुह विरहं ।। 60 ।। अर्थ : हे नाथ! इसी कारण से मेरा शरीर दुःख से पीड़ित है । विधि (दैव) की लीला की विचित्रता में (मैं) तुम्हारे विरह को कैसे सहन करूँगी ? 1 कुमरो जंपइ जक्खिणी खेअं मा कुणसु हिअयमज्झम्मि । जलबिन्दुचंचले जीविअम्मि को मन्नइ थिरत्तं ।। 61 ।। अर्थ : वह दुर्लभ कुमार कहता है- हे यक्षिणी ! (अपने) हृदय में खेद मत करो। (क्योंकि) जल बिन्दु के समान चंचल (इस) जीवन को स्थिर क्यों मानती हो ? जइ मज्झुवरि सिणेहं धरेसि ता केवलिस्स पासम्मि । पाणपिए मं मुंचसु करेमि जेणप्पणो कज्जं ।। 62 ।। अर्थ : हे प्राणप्रिये! (तुम) यदि मेरे ऊपर स्नेह धारण करती हो तो मुझे केवली के पास छोड़ दो, जिससे (मैं) आत्म (स्वयं का) कल्याण करूँ । तो तीइ ससत्तीए केवलिपासम्मि पाविओ कुमरो । अभिवन्दिअ केवलिणं जहारिह ठाणमासीणो ।। 63।। अर्थ : तब उस यक्षिणी की अपनी शक्ति से वह दुर्लभकुमार केवली के पास में पहुँच गया। केवली को अभिवादन करके यथायोग्य स्थान ग्रहण किया । पुत्तस्स सिणेहेणं चिरेण अवलोइऊण तं कुमरं । अह रोइउं पवत्ता तत्थ ठिआ मायतायमुणी ।। 64 ।। अर्थ : इसके बाद वहाँ पर बैठे हुए माता-पिता के रूप में वे मुनि बहुत समय बाद उस कुमार को देखकर पुत्र के स्नेह से रोने के लिए प्रवृत्त हुए । 1. भण्डारकर प्राच्यविद्या शोध संस्थान, पूना की प्रति में 62वीं गाथा के बाद 8 गाथाएँ अतिरिक्त प्राप्त होती हैं। वे गाथाएँ परिशिष्ट 'स' में दी गई हैं। 14 सिरिकुम्मापुत्तचरिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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