Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 31
________________ तो केवली पयंपइ सुणेह सवणेहि सावहाणमणा। तुम्हाणं सो पुत्तो अवहरिओ वंतरीए अ ।। 40।। अर्थ : तब केवली (मुनि) कहते हैं – सचेत (सावधान) मन पूर्वक अपने कानों से सुनो। तुम्हारा वह पुत्र (दुर्लभकुमार) व्यंतर देवी (यक्षिणी) द्वारा हरण कर लिया गया है। तो केवलिवयणेणं अईव अच्छरिअविम्हिआ जाया। साहन्ति कहं देवा अपवित्तनरं अवहरन्ति । 41 ।। अर्थ : केवली के वचनों से उनको (कुमार के माता-पिता को) अत्यधिक आश्चर्य एवं विस्मय उत्पन्न हो गया। (वे) कहते हैंअपवित्र मनुष्य को देवता आदि कैसे हर लेते हैं ? यदुक्तमागमे - चत्तारि-पंच-जोयणसयाइं गंधो अ मणुयलोगस्स। उड्ढं वच्चइ जेणं न हु देवा तेण आयन्ति ।। 42|| यह आगम में कहा गया हैअर्थ : मनुष्यलोक की गन्ध चार–पाँच सौ योजन ऊपर (तक) जाती है, जिससे वे देवता आदि निश्चय ही (यहाँ) नहीं आते हैं। पंचसु जिणकल्लाणेसु चेव महरिसितवाणुभावाओ। जम्मतरनेहेण य आगच्छन्ति हु सुरा इह यं ।। 43।। अर्थ : इस तरह जिनेन्द्र भगवान् के पाँच कल्याणकों में और ऋषियों के महान् (कठोर) तप के भाव (प्रभाव) से तथा पूर्व जन्म के स्नेह के कारण निश्चय ही देवता आदि संसार में आते हैं। तउ केवलिणा कहिअं तीसे जम्मंतरसिणेहाइ। ते बिंति तओ सामिय अइबलिओ कम्मपरिणामो।। 44 ।। अर्थ : तब उन्हें (माता-पिता को) केवली के द्वारा कुमार के पूर्वजन्म के स्नेह आदि को (तथा) पराक्रम युक्त (उसके) कर्म के परिणाम/फल को हे स्वामी! कहा गया। सिरिकुम्मापुत्तचरिअं 01- 266583633668 10 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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