Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
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इअ वयणं सोऊणं वयणं दट्ठूण सुनयणं तीसे । पुव्वभवस्स सिणेहो तस्स मणम्मि समुल्लसिओ ।। 32 ।।
अर्थ : इस प्रकार के वचन को सुनकर (और) उसके सुन्दर नेत्रों वाले मुख को देखकर उस राजकुमार के मन में पूर्वभव का स्नेह उत्पन्न (उल्लसित) हो गया ।
कत्थ वि एसा दिट्ठा पुव्वभवे परिचिआ य एयस्स । इय ऊहापोहवसा जाईसरणं समुप्पण्णं ।। 33 ।। अर्थ : "कहीं पर भी इसे देखा है अथवा पूर्वभव में इसका परिचय था इस प्रकार के ऊहापोह (कुछ निश्चित निर्णय न ले पाने की स्थिति) के वश से (राजकुमार को) जाति - स्मरण उत्पन्न हो
गया ।
नाऊणं
जाइसरणेण तेणं पुव्वजम्मवृत्तंतो । कहिओ कुमरेणं निअपियाइ पुरओ समग्गो वि ।। 34 ।। अर्थ : जाति - स्मरण से जानकर उस राजकुमार के द्वारा अपनी पिया ( यक्षिणी) के सामने समस्त पूर्वजन्म का वृत्तान्त कहा गया ।
तत्तो नियसत्तीए असुमाणं पुग्गलाण अवहरणं । सुभपुग्गलपक्खेवं करिअ सुरी तस्सरीरम्मि ।। 35 ।।
अर्थ : तब अपनी शक्ति से ( यक्षिणी ने) अशुभ पुद्गलों (पदार्थों) का अपहरण करके उसके शरीर में शुभ पुद्गलों (पदार्थों) को प्रेक्षित ( आरोपित) करके देव सुख योग्य (भोगने योग्य) बनाया ।
पुव्वभवंतरभज्जा लज्जाइ विमुत्तु भुंजए भोगे । एवं विसयसुहाई दुन्नि वि विलसन्ति तत्थ ठिया ।। 36 ।।
अर्थ : पूर्वभव की पत्नी (के रूप में) लज्जा के कारण त्यागे हुए भोगों को भोगते हैं। इस तरह वहाँ पर रहते हुए दोनों ही विषयसुखों को भोगते हैं ( प्राप्त करते हैं) ।
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सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
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