Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 27
________________ दट्ठूण तं कुमारं बहुकुमरुच्छालणिक्कतल्लिच्छं । सा जंपइ हसिऊणं किमिणेणं रंकरमणेणं ।। 21 ।। अर्थ : बहुत से बालकों को उछालने में एकाग्रचित्त ( एवं ) तल्लीन उस कुमार को देखकर (और) हँसकर वह यक्षिणी कहती है (कि) इन गरीब / भोले बच्चों से क्यों मनोरंजन करते हो? जइ ताव तुज्झ चितं विचित्तचित्तम्मि चंचलं होई | ता मज्झं अणुधावसु वयणमिणं सुणिअ सो कुमरो ।। 2211 अर्थ : तब यदि तुम्हारा चित्त विचित्र प्रकार के आश्चर्य में चंचल होता है, तो मेरे पीछे-पीछे आओ। इस वचन को सुनकर वह राजकुमार 1 तं कण्णं अणुधावइ तव्वअणकुऊहलाकुलिअचित्तो । तप्पुरओ धावन्ती सा वि हु तं निअवणं नेइ ।। 23 ।। अर्थ : उसके वचनों को (सुनकर ) कौतूहल युक्त चित्तवाला (वह कुमार ) उस कन्या के पीछे-पीछे जाता है । वह यक्षिणी भी वास्तव में शीघ्र ही उसे अपने उद्यान (भवन) को ले जाती है । बहुसालवडस्स अहेपहेण पायालमज्झमाणीओ । सो पासइ कणगमयं सुरभवणमईव रमणिज्जं ।। 2411 अर्थ : वह कुमार पाताल के मध्य में स्थित बहुशाल नामक वट वृक्ष के नीचे बने हुए सोने से युक्त देवताओं के भवन से अत्यधिक सुन्दर ( उसके भवन को ) देखता है। तं च केरिसं ――― रयणमयखंभपंतीकंतीभरभरिअभिंतरपएसं । मणिमयतोरणधोरणितरुणपहाकिरणकब्बुरिअं ।। 25।। वह कैसा था ? अर्थ : रत्नमय खम्भों की पंक्तियों की कान्ति के तेज से चमकित अन्दर के प्रदेश वाला, मणियों से बने हुए दरवाजों के तोरण वाला, तेज प्रकाश की किरण से चितकबरा ( विभिन्न रंगों को प्रदर्शित करने वाला था) । 6 सिरिकुम्मापुत्तचरिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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