Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 22
________________ अनन्तहंसकृत सिरिकुम्मापुत्तचरिअं (श्री कूर्मापुत्र चरित्र) नमिऊण वद्धमाणं असुरिंदसुरिंदपणयपयकमलं । कुम्मापुत्तचरित्तं वोच्छामि अहं समासेणं ।। 1।। अर्थ : असुरों एवं देवों द्वारा चरण-कमलों में प्रणाम किए गए भगवान् वर्द्धमान को नमस्कार करके मैं कूर्मापुत्र के चरित्र को संक्षेप में कहता हूँ। रायगिहे वरनयरे नयरेहापत्तसयलपुरिसवरे। गणसिलए गुणनिलए समोसढो वद्धमाणजिणो।। 2।। अर्थ : न्याय की रेखा को प्राप्त समस्त श्रेष्ठ पुरुषों से युक्त राजगृह नाम के श्रेष्ठ नगर के गुण नामक यक्ष मंदिर के गुणशिलक नामक उद्यान में भगवान् वर्द्धमान आए। देवेहि समोसरणं विहिअं बहुपावकम्मओसरणं। मणिकणयरयणसारप्पायारपहापरिप्फरिअं ।। 311 अर्थ : मणि, सोना और रत्नों के सारभूत अनेक प्रकार की प्रभा से स्फुरित/शोभायमान (तथा) बहुत से पाप कर्मों को दूर करने वाले समवसरण की देवताओं द्वारा रचना की गई। तत्थ निविट्ठो वीरो कणयसरीरो समुद्दगम्भीरो। दाणाइचउपयारं कहेइ धम्मं परमरम्मं ।। 4।। अर्थ : वहाँ (बगीचे में) स्थित सोने के समान पीले शरीर वाले (तपस्या से तपे हुए शरीर वाले), समुद्र के समान गम्भीर (धर्म की विशेष गम्भीर बातें करने वाले), भगवान् महावीर दान आदि चार प्रकार के महान और श्रेष्ठ धर्म को कहते हैं। सिरिकुम्मापुत्तचरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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