Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ अर्थ : उस समय गौतम गोत्रीय समचतुरस्त्रसंस्थान वाले वज्रवृषभ नाराचसंहनन, कमल के समान लालिमा युक्त एवं स्वर्ण की रेखा के समान गौरवर्ण वाले, उग्र तप करने वाले, तप से दैदीप्यमान, महान् एवं घोरतप करने वाले, जीवन में पूर्ण एवं कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, शरीर से विरक्त (अपने शरीर को नहीं संवारने वाले), संक्षिप्त एवं विपुल तेजोलेश्या के धारक, चौदह पूर्वो के ज्ञाता एवं चार प्रकार के ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि एवं मनः पर्यय) से युक्त, पाँच सौ साधुओं से घिरे हुए, बार-बार शास्था उपवास के द्वारा अपनी आत्मा का उन्नयन (विकास) करते हुए भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य अनगार इन्द्रभूति गौतम उठते हैं । उठकर भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं। प्रदक्षिणा करके झुककर वंदना करते हैं, प्रणाम करते हैं। झुककर वंदना करके एवं प्रणाम करके इस प्रकार कहते हैं :--- हे भगवन्! कुम्मापुत्त (कूर्मापुत्र) कौन था? तथा उसने गृहस्थावस्था में रहते हुए भावना का चिन्तन करते हुए किस प्रकार से अनन्त, अनुत्तर, अव्याबाधित, आवरण रहित, परिपूर्ण एवं सकल श्रेष्ठ केवलज्ञान व केवलदर्शन को प्राप्त किया। तब श्रमण भगवान् महावीर ने एक योजन तक सुनाई देने वाली अमृत के समान वाणी में कहा : गोयम जं मे पुच्छसि कुम्मापुत्तस्स चरिअमच्छरिअं । एगग्गमणो होउं समग्गमवि तं निसामेसु ।। 8 ।। अर्थ : हे गौतम! कूर्मापुत्र के आश्चर्य युक्त, जिस चरित्र को (तुम) मुझसे पूछते हो, उसके समग्र स्वरूप को एकाग्रचित्त होकर सुनो। जम्बुद्दीवे दीवे भारहखित्तस्स मज्झयारंमि । दुग्गमपुराभिहाणं जगप्पहाणं पुरं अस्थि ।। 9 ।। अर्थ : भारत क्षेत्र के मध्यभाग में जम्बूद्वीप नामक द्वीप में जग में प्रधान दुर्गमपुर नाम का नगर है। सिरिकुम्मापुत्तचरिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only 3 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110