Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 21
________________ सरल रचना है। यहाँ बड़े-बड़े समास, क्लिष्ट रचना और दुर्बोध अलंकारों का उपयोग दिखता ही नहीं। लेकिन इस काव्य में गुणसिलए गुणनिलए (२), भद्दमुही (२०), सुरभिवणे सुरभवणे (३०), सुकयसुक्यवसओ (३१), नियसुरभि, सुरभिं सुरभि (६८), गुरुयं, गुरुअंतिए (६२), वरनयरं वरनयरंगंतमंदिरं, आदि में भिन्न-भिन्न अर्थों के शब्दों का प्रयोग हुआ है। इस काव्यशैली का यह अनोखा वैशिष्ट्य है। एक ही शब्द बार-बार नजदीक आने से कर्णमधुर बनता है तथा उनके विभिन्न अर्थ ज्ञात होने से मन प्रसन्न होता है। ६७ और ६८ गाथाओं में सहजसुलभ उपमाओं का उपयोग किया है। xii Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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