Book Title: Sirikummaputtachariyam
Author(s): Ananthans, Jinendra Jain
Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur

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Page 10
________________ प्रस्तावना 'कुम्मापुत्तचरिअं' का कर्ता, समय और स्थल कर्ता-प्राचीन भारतीय ग्रंथकारों का हमें अत्यल्प परिचय मिलता है, क्योंकि वे प्रसिद्धिपराङ्मुख थे। इसमें 'कुम्मापुत्तचरिअं का कर्ता अपवाद नहीं। 'कुम्मापुत्तचरिअं' की अंतिम गाथा में ग्रंथकार के बारे में लिखा है-'श्रेहेमविमल इस मंगलमय आचार्यवर्य के श्रीजिनमाणिक्य रजक ने इस (कूर्मापुत्र) प्रकरण की रचना की है"सिरिहेमविमलसुहगुरुसिरिजिणमाणिक्करयएणं रइयं पगरणमेय।" लेकिन जैन आनन्द पुस्तकालय, सूरत, ई.स. १६१६ और देहला उपाश्रय, अहमदाबाद-इन दो हस्तलिखित प्रति की प्रशस्ति में 'कुम्मापुत्तचरिअं' का कर्ता अनन्तहंस है, ऐसा उल्लेख मिलता है। यदि षष्ठी तत्पुरुष समास लिया जाए, तो श्री हेममंगल आचार्य का शिष्य जिनमाणिक्य और जिनमाणिक्य का रज के समान शिष्य (अनंतहंस) था, उसने यह काव्य लिखा होगा, ऐसा अर्थ होता है "श्रीहेमविमलः शुभगुरुः यस्य असौ यः जिणमाणिक्यः तस्य यः शिष्यरजः तेन (अनंतहसेन) रचित।" काव्य की उपान्त गाथा में 'अणंतसुहभायणं हवइ' (अनंतसुख का पात्र है।) ऐसा शब्द-प्रयोग मिलता है। अतः कवि ने परोक्षरीति से अपने नाम का ऐसा उल्लेख किया होगा। अनन्तहंसकृत 'दृष्टान्तरत्नाकर' नाम की एक हस्तलिखित प्रति की प्रशस्ति में अनन्तहंस ने अपने गुरु का नाम जिणमाणिक्य कहा है। 'कुम्मापुत्तचरिअं' तथा 'दृष्टान्तरत्नाकर' इन दोनों कृतियों में साम्य दिखता है; इसलिये अनन्तहंस उक्त दोनों कृतियों का कर्ता होगा, इसे पुष्टि मिलती है। अनन्तहंस के नाम पर 'बारहव्रतसज्झाय' और 'इलाप्राकारचैत्यपरिपाटी' ये दो गुजराती कृतियाँ मिलती हैं। लेकिन एक दो प्रति की प्रशस्ति में दी हुई बात पर कितना विश्वास रखना चाहिये, यह प्रश्न है। क्योंकि श्री जिनमाणिक्य के रजसमान (अनंतहंस) शिष्य ने इस प्रकरण की रचना की, ऐसा अर्थ करना पड़ेगा। परन्तु एक हस्तलिखित प्रति की प्रशस्ति से ऐसा मालुम होता है कि तपागच्छ के श्रीहेमविमलसूरि के शिष्य श्रीजिनमाणिक्य ने 'कुम्मापुत्तचरिअं' की रचना की और महोपाध्याय श्रीमुक्तिसौभाग्यगणिशिष्य मुनि कल्याणसौभाग्य ने उसको लिपिबद्ध किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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