Book Title: Sirikummaputtachariyam Author(s): Ananthans, Jinendra Jain Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur View full book textPage 8
________________ भूमिका भारतीय वाङमय में वैदिक, जैन और बौद्ध साहित्य का अपना विशेष महत्त्व है। इन तीनों धाराओं में जीवन के अनेक मूल्यों को और समाज के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित किया गया है। धर्म एवं दर्शन समाज की मुख्य चिंतनधारा का एक आयाम है। जैन परम्परा में संस्कृत और प्राकृत इन दोनों भाषाओं में विपुल साहित्य लिखा गया। प्राकृत साहित्य में सिरिकुम्मापुत्तचरिअं (अनन्तहंसकृत) एक आख्यायिका ग्रन्थ है। यद्यपि सिरिकम्मापुत्तचरिअं ग्रन्थ के शीर्षक से यह चरित ग्रंथ प्रतीत होता है, किन्तु विषयवस्तु को ध्यान में रखने से इसकी कथा निर्वेदजननी के रूप में प्राप्त होती है। अतः चरित काव्य की बजाय कथाग्रन्थ की कोटि में इसे रखना उचित होगा। सिरिकुम्मापुत्तचरिअं के दो संस्करण पूर्व में प्रकाशित हो चुके हैं। अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रो. के. व्ही. अभ्यंकर द्वारा सम्पादित ग्रन्थ का प्रकाशन ई. 1933 में गुजरात कॉलेज, अहमदाबाद द्वारा किया गया था तथा दूसरा प्रकाशन 1973 में श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति, पाथर्डी (अहमदनगर) से प्रा. एम. एस. रणदिवे द्वारा सम्पादित कृति के रूप में मराठी अनुवाद सहित हुआ। हिन्दी अनुवाद की पूर्ति इस प्रकाशन के माध्यम से अब पूरी हो रही है। इस प्रकाशित संस्करण में आवरण पृष्ठ पर सिरिकुम्मापुत्तचरियं के स्थान पर सिरिकुम्मापुत्तचरिअं प्राकृत भाषा की दृष्टि से होना उपयुक्त है, किन्तु यह त्रुटि भूलवश संशोधित नहीं हो सकी है। शेष ग्रन्थ में प्राकृत भाषा के नियमानुसार 'अ' को 'अ' ही सुरक्षित रखा गया है, य श्रुति नहीं किया गया है। सिरिकुम्मापुत्तचरिअं नामक इस प्रकाशित कृति में प्रस्तावना के अन्तर्गत जो विषय प्रतिपादन किया गया है, उसका आधार प्रा. रणदिवे द्वारा सम्पादित कृति ही है। यह संस्करण छात्रोपयोगी बने, इसके लिए हिन्दी शब्दार्थ एवं परिशिष्ट के अंश भी कृति में दिये गये हैं। इसके प्रकाशन में अर्थ-सौजन्य प्रदाता श्रद्धा इलेक्ट्रिकल्स, जबलपुर तथा परोक्ष रूप से सहयोग करने वाले अन्य महानुभाव साधुवाद के पात्र हैं, उनके प्रति बहुत-बहुत आभार। इस कृति में धर्म के दान, तप, शील और भाव इन चार प्रकारों में भावनाशुद्धि को मानव जीवन के लिए उपयोगी बताया है। ग्रन्थ में स्पष्ट किया है कि किस प्रकार कूर्मापुत्र भावशुद्धि से केवलज्ञान को ग्रहण करके तपश्चरण करते हुए मोक्ष को प्राप्त करता है। वास्तव में मानव-जीवन मिलने पर जिसने तपश्चरण नहीं किया, उसने अपना जीवन सार्थक नहीं किया। अतः यह कृति पाठकों को सन्मार्ग में ला सकी, तो इसकी सार्थकता होगी। कार्तिक शुक्ला एकादशी डॉ. जिनेन्द्र जैन सम्वत् 2061 (22.11.2004) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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