Book Title: Sirikummaputtachariyam Author(s): Ananthans, Jinendra Jain Publisher: Jain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur View full book textPage 7
________________ प्रकाशकीय कवि के अन्तर्मन से उद्भूत विचारों की श्रृंखला जब शब्द-दर-शब्द आबद्ध होकर एक नये रूप को ग्रहण करती है तब कविता का जन्म होता है। शब्द नये रूप में परिणत होकर, जहाँ कवि के जीवन की अनुभूतियों को उद्घाटित करते हैं, वहीं समाज की अन्यान्य चेष्टाएँ भी काव्य के माध्यम से व्याख्यायित होती हैं। इसीलिये साहित्य समाज का दर्पण कहा गया है। जैन अध्ययन एवं सिद्धांत शोध-संस्थान प्राच्य–विद्याओं की अकादमिक गतिविधियों को प्रोत्साहन और उन्हें संरक्षण-संवर्द्धन प्रदान करने वाला एक समर्पित संस्थान है। जैन धर्म-दर्शन, इतिहास, संस्कृति तथा प्राकृत साहित्य, भाषा, व्याकरण आदि विधाओं के अनुसंधान के साथ-साथ तत्सम्बन्धित और संस्कृत, हिन्दी भाषा के उत्कृष्ट साहित्य का प्रकाशन करना भी संस्थान का एक विशिष्ट उद्देश्य है। संस्थान प्राकृत साहित्य की विशिष्ट कथाकृति अनन्तहंसकृत सिरिकुम्मापुत्तचरिअं को प्रकाशित करके आप तक पहुँचाने का लघु प्रयास कर रहा है। इस कृति में धर्म के दान, तप, शील और भाव इन चार प्रकारों में भावनाशुद्धि को मानव जीवन के लिए अनिवार्य बताया है। ग्रन्थ में स्पष्ट किया है कि किस प्रकार कूर्मापुत्र भावशुद्धि से केवलज्ञान को ग्रहण करके तपश्चरण करते हुए मोक्ष को प्राप्त करता है। वास्तव में मानव-जीवन मिलने पर जिसने तपश्चरण नहीं किया, उसने अपना जीवन सार्थक नहीं किया। सिरिकुम्मापुत्तचरिअं नामक यह धर्मकथा सुधि पाठकों के हाँथों में सौंपते हुए संस्थान हर्ष का अनुभव करता है। संस्थान सदैव प्रयासरत है कि इस तरह के साहित्य-प्रकाशन से वह समाज को हमेशा लाभान्वित करता रहे। 12 नवम्बर, 2004 मंत्री जैन अध्ययन एवं सिद्धांत शोध-संस्थान जबलपुर (म. प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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