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इस अनादि-अनन्त विश्व में सर्वज्ञ विभु श्री तीर्थंकर परमात्मा ने दो प्रकार के पदार्थ प्रतिपादित किये हैं(१) परिणामी और (२) अपरिणामी ।
जिसमें संयोगों के निमित्त से परिवर्तन हो जाता है अर्थात् विविध प्रकार से फेरफार हो जाता है वह पदार्थ परिणामी कहा जाता है; जैसे-अात्मा, स्फटिक, जल इत्यादि पदार्थ । जिस पर संयोगों का अंश मात्र भी असर नहीं होता अर्थात् जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता वह पदार्थ अपरिणामी कहा जाता है; जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय इत्यादि पदार्थ ।
परिणामी पदार्थों में जो परिणमन होता है, उसमें मुख्य भाग लेने वाले द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव हैं ।
आत्मा पर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का विशेष प्रबल असर है। यदि आत्मा उत्तम द्रव्यों के समागम में रह कर उन्हीं का सेवन करती रहे तो उन्नत होती है; जैसे ब्राह्मो का सेवन करने से बुद्धि प्रखर होती है । यदि वह खराब द्रव्यों के समागम में रह कर उन्हीं का सेवन करती रहे तो अवनत होती है; जैसे मदिरा (मद्यशराब) पान करने वाली आत्मा उन्मत्त (पागल) हो जाती है। इन दोनों स्थितियों में मुख्य कारण द्रव्य ही है।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२