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धर्मचक्र से धर्मध्वज तक के पाँचों अतिशय जहाँजहाँ प्रभु विचरते हैं वहाँ-वहाँ पर आकाश में चलते रहते हैं तथा जहाँ-जहाँ पर प्रभु बिराजमान होते हैं वहाँ-वहाँ पर धर्मचक्र और धर्मध्वज प्रभु के आगे के भाग में रहते हैं, पादपीठ प्रभु के चरणों के नीचे रहता है, सिंहासन पर प्रभु बिराजमान होते हैं, चामर प्रभु के बायीं और दाहिनी तरफ अर्थात् दोनों तरफ ढुलते हैं तथा छत्र प्रभु के मस्तक पर रहते हैं ।
(२१) देवता स्वर्ण के नौ कमल बनाते हैं, जिनमें से दो कमलों पर श्रीअरिहन्त - तीर्थंकर परमात्मा अपने चरण रख कर चलते हैं तथा शेष सात कमल प्रभु के पीछे रहते हैं, जिनमें से दो कमल क्रमशः प्रभु के आगे-आगे रहते हैं ।
(२२) देवतागण प्रभु के दिव्य समवसरण में तीन गढ़ निर्मित करते हैं । उनमें से पहला गढ़ ( अर्थात् प्राकार) विचित्र प्रकार के रत्नों से वैमानिक देव बनाते हैं, दूसरा गढ़ सुवर्ण से ज्योतिषी देव बनाते हैं और तीसरा गढ़ रूपा (चाँदी) से भुवनपति देव बनाते हैं ।
( २३ ) जिस समय श्रीअरिहन्त - तीर्थंकर परमात्मा दिव्य समवसरण में सिंहासन पर पूर्व दिशा सन्मुख बिरा
श्रीसिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- ३८