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अन्य नामों से भी पहिचाना जाता है । जैसे- वाचक, पाठक, स्थविर, कुत्रिकापण, आत्मप्रवादी इत्यादि ।
ऐसे उपाध्यायजी महाराज 'उवज्झाय' 'उपाध्याय' आदि पद नाम से समलंकृत होते हुए भी उपयोगपूर्वक पाप का परिवर्जन, उपयोगपूर्वक ध्यान तथा उपयोगपूर्वक ध्यानादि साधनों द्वारा अनादिकाल से प्रात्मा के लाथ लगे हुए कर्मों का अपनयन करने वाले होने से उपाध्याय पद की सार्थकता करते हैं।
उपाध्याय के पच्चीस गुण शासन के सम्राट् आचार्य भगवान के पश्चात् श्रमण संघ में महत्त्वपूर्ण स्थान उपाध्यायजो महाराज का है । वे संघस्थ मुनियों को द्वादशाङ्गी का मूल से, अर्थ से और तदुभयरूप भावार्थ से भी सुन्दर अध्ययन करवाते हैं। ___ ऐसे श्री उपाध्यायजी महाराज के पच्चीस गुण शास्त्र में प्रतिपादित किए गए हैं । वे पच्चीस गुण इस प्रकार हैं
श्रीप्राचारांगसूत्रादि ग्यारह अङ्ग, श्रीप्रौपपातिक सूत्रादि बारह उपाङ्ग, चरणसित्तरी तथा करणसित्तरी इन पच्चीस गुरणों के धारक श्री उपाध्यायजी महाराज होते हैं।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१०५