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कोई भेद नहीं। प्रत्येक सम्यक्त्ववंत-समकिती जीव को न्यून में न्यून अर्थात् अल्प में अल्प मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान होते हैं। उनके साथ में किसी को अवधिज्ञान (तीसरा ज्ञान) भी होता है तथा किसी को इन तीनों ज्ञानों के साथ में चौथा मनःपर्यवज्ञान भी होता है। पंचम ज्ञ न प्राप्त करने वाले जीव को मात्र केवलज्ञान एक ही होता है। कारण यह है कि-जब केवलज्ञान प्राप्त होता है तब मत्यादि चारों ज्ञान नहीं रहते अर्थात्-अदृश्य हो जाते हैं । केवलज्ञान एक ही रहता है ।
(२) केवल यानी संपूर्ण । यह केवलज्ञान ज्ञानावरणीयादि चार घाती कर्मों का सर्वथा क्षय होने से प्रात्मा में एक साथे सम्पूर्णपने उत्पन्न होता है। सभी केवलज्ञानी जीवों का यह ज्ञान सम्पूर्णपने एक समान है। पूर्व के मत्यादि चारों ज्ञान क्षयोपशम भावे अनेक प्रकार के होने से जीवों में न्यूनाधिक होते हैं ।
(३) केवल यानी असाधारण । केवलज्ञान के समान अन्य कोई भी ज्ञान नहीं होने से उसे असाधारण कहा जाता है।
(४) केवल यानी अव्याघात-अव्याबाध । केवलज्ञान रूपी सूर्य का सम्पूर्ण प्रकाश सर्वत्र लोक और अलोक में प्रसर जाता है। किसी भी स्थल में उसको व्याघात नहीं
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१६१