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प्रष्ट सकल समृद्धि नो, घट मांहि ऋद्धि दाखी रे |
तेम नवपद ऋद्धि जाणजो, श्रातमराम छे साखी रे || वीर० ॥
योग असंख्य छे जिन कह्या, नवपद मुख्य ते जाणो रे । एह तरणे अवलंबने, प्रातम ध्यान प्रमाणो रे || वीर० ॥
ढाल बारमी एहवी, चौथे खंडे पूरी रे । वाणी वाचक जस तरगो, कोई नये न अधूरी रे || वीर० ॥
॥ श्री पं० वीरविजयजी कृत स्नात्रपूजा ॥
पूर्व या उत्तर दिशा में बाजोट (त्रिगडा ) रखकर उस पर कुकुमका साथिया करना । त्रिगडे में अक्षत का साथिया करके उस पर नारियल व थापना रखना । उस पर सिंहासन रखकर केशर का साथिया कर तीन नवकार मंत्र गिनकर पंच तीर्थ की प्रतिमा की स्थापना करना । फिर तीन नवकार मंत्र गिनकर पंचामृत का कलश हाथ में लेना । प्रभु के जीमणी तरफ खड़े रहकर सर्वप्रथम मंगलाचरण का श्लोक दोहा बोलकर भगवान के चरण ( अंगूठे ) का अभिषेक करना ।
सरस शान्ति सुधारस सागरं
शुचितरं गुणरत्न महागरम् ।
भविक पंकज बोध दिवाकरं प्रतिदिनं प्ररणमामि जिनेश्वरम् ।। १ ॥
॥ दोहा ॥
कुसुमाभरण उतारी ने, पडिमा धरिय विवेक ।
मज्जन पीठे थापी ने, करिये जल अभिषेक ॥। १ ।। ( अभिषेक करना)
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फ़िर जीमणे हाथ में साथिया करके कुसुमांजलि हाथ में लेकर क्रम से गाथा दोहा बोलकर भगवान के चरण पर चढ़ाना ।
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