Book Title: Siddhachakra Navpad Swarup Darshan
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir
View full book text
________________
स्तुति ३ जिन शासन वंछित, पूरण देव रसाल । भावे भवि भणिये, सिद्धचक्र गुणमाल । त्रिहु काले एहनी, पूजा करे उजमाल । ते अजर अमर पद, सुख पामें सु विशाल ।। १ ।। अरिहंत सिद्ध वंदो, आचारज उवज्झाय । मुनि दरिसण नाण, चरण तप ए समुदाय ।। ए नवपद समूदित, सिद्धचक्र सुखदाय । ए ध्याने भविना, भव कोटि दुख जाय ।। २ ।। आसो चैतरमां, सुदी सातम थी सार । पूनम लग कीजे, नव आंबिल निरधार । दोय सहस गणे, पद सम साडा चार । एक्यासी अांबिल, तप आगम अनुसार ।। ३ ।। श्री सिद्धचक्रनो सेवक, श्री विमलेसर देव । श्रीपाल तणी परे, सुख पूरे स्वयमेव ।। दुःख दोहग नावे, जे करे एहनी सेव । श्री सुमति सुगुरु नो, राम कहे नित्य मेव ।। ४ ।।
स्तुति ४ श्री सिद्धचक्र सेवो सुविचार, प्राणी हैडे हरख अपार, जिम लहो सुख श्रीकार ।। मन शुद्ध अोली तप कीजे, अहोनिश नवपद ध्यान धरीजे, जिनवर पूजा कीजे । पडिक्कमणां दोय टंकना कीजे, आठे थुइए देव वांदीजे, भूमि संथारो कीजे ॥ मृषा तणो कीजे परिहार, अंगे शीयल धरीजे सार, दीजे दान अपार ॥१॥
(
50
)
Page Navigation
1 ... 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510