Book Title: Siddhachakra Navpad Swarup Darshan
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 440
________________ अरिहंत सिद्ध आचार्य नमीजे, वाचक सर्वे साधु वंदीजे, दंसण नारण सुरगोजे ॥ चारित्र तपनुं ध्यान धरीजे, ग्रहोनिश नवपद गरण गरणीजे, नव आंबिल परण कीजे । निश्चल राखी मन हो निश्चे, जपीए पद एक एक ईश, नोकरवाली बीश ॥ छेल्ले बिल मोटो तप कीजे, सत्तरभेदी जिनपूजा रचीजे, मानवभव लाहो लीजे ॥ २ ॥ सातसे कुष्ठीयाना रोग, नाठा यंत्र न्हवरण संजोग, दूर हुआ कर्मना भोग ।। अढ़ारे कुष्ठ दूरे जाये, दुःख दोहग दूर पलाये, मनवांछित सुख थाये ॥ निरधनीयाने दे बहु धन्न, अपुत्रीयाने दे पुत्र रतन्न, जे सेवे शुद्ध मन || नवकार समो नहीं कोई मंत्र, सिद्धचत्र समो नहीं कोई जंत्र, सेवो भवि हरखंत ।। ३ ।। जिम सेव्या मयरणा श्रीपाल, उंबर रोग गयो सुख रसाल पाम्या मंगलमाल || श्रीपाल तरणी पेरे जे आराधे, दिन दिन दौलत तस घर वाधे, प्रति शिवसुख सावे || विमलेश्वर यज्ञ सेवा सारे, आपदा कष्ट ने दूर निवारे, दौलत लक्ष्मी वधारे || मेघविजय कवियरण ना शिष्य, आणी हैडे भाव जगीश, विनय वंदे निशदिश || ४॥ स्तुति ५ अरिहंत नमो वली सिद्ध नमो, श्राचारज वाचक साहु नमो । दर्शन ज्ञान चारित्र नमो, तप ए सिद्धचक्र सदा प्रणमो ।। १ ।। अरिहंत अनंत थया थाशे, वली भाव निक्षेपे गुण गाशे । पडिक्कमरणां देववंदन विधिशु, आंबिल तप गरण गणो विधि |२| छरि पाली जे तप करशे, श्रीपाल तरणी परे भव तरशे । सिद्धचक्रने कुरण वे तोले, एहवा जिनश्रागम गुरण बोले ।। ३ ।। ( 51 >

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