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की प्रतिष्ठा है। अन्य रीति से भी कहा है कि दान धर्म का मार्ग है, शील धर्म की गति है, तप धर्म की प्रगति है और भाव धर्म की प्राप्ति है।
(१) जगत में सद्धर्म का 'प्राण' तप है । (२) सचेतन-प्रात्मा का 'त्राण' तप है । (३) गुणीजनों के गुण की 'खान' तप है ।
(४) कर्म मूल को निर्मूल करने के लिये शस्त्ररूपे 'कृपारण' तप है।
(५) भवव्याधि को सर्वथा मिटाने के लिये 'रामबाण इलाज' तप है।
(६) आत्मा की 'इच्छा का निरोध' तप है ।
(७) जैनधर्म-जैनशासन की 'विजयपताकाध्वज' तप है।
(८) जैनधर्म यानी जैनशासन में सद्ज्ञान यह धूप सळी, दर्शन यह सौरभ-सुगन्ध तथा संयम-तप यह धूप सळी के जल जाने से उत्पन्न होती हुई फोरम है ।
(९) विश्व में स्व या पर के श्रेय का 'प्रतीक' तप है।
(१०) कर्म निर्जरा का 'अनुपम साधन' तप है ।
श्रीसिद्धचक्र नवपदस्वरूपदर्शन-३००